शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹❄ *श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य* ❄🌹

🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

श्रीकृष्ण -

(पद)

धीरज रहत नहिं प्रेम-मग पग धरि।
आदि अंत जाकौ न बतायौ कोउ,
थकित रहत मन-बुधि बिधि-हर-हरि।।
बार-बार मैं हूँ बिचार करि देखूँ नित,
भूलि जात गेहु, नीर आवत दृगन भरि।
प्रेमी प्रेम पात्र सूर गायौ है अभेद भेद,
डरत न काहू सौं सेवक ज्यौं नरहरि।।

(पद)

अति ही कठिन है निगम पथ चलिबौ।
कठिन सौं कठिन जगत रीत देखियत,
गुरुजन-डर नित हिय में उछलिबौ।।
प्रेम पंथ ग्रंथन में गायौ है अनेक भाँति,
आवत न अंत निज पिय कौ मचलिबौ।
प्रीत जो सनातन, ताहि जानत ना ओछौ मन,
सूर कहा जानै ताहि बिना नैन मिलिबौ।।

श्रीजी- सखी, कहा ये ही हैं स्यामसुंदर?

सखी- हाँ, प्यारी! ये ही हैं। अब नैन भरि देखि लेऔ!

श्रीजी-

(पद)

कृष्ण मन-मोहन नैन बिसाल।
बंक मनोहर चितवनि चितवत, बन ते आवत लाल।।
सुंदर अमल कमल-दल सोहत मुसिकन मंद रसाल।
हरिबल्लभ किमि रूप कहौं सखि, मोहन मदन गुपाल।।

पद (रांग-नूर सारंग, तीन ताल)

अँखियन याही टेव परी।
कहा करूँ बारिज मुख ऊपर लागत ज्यौं भँवरी।।
हरखि-हरखि प्रीतम मुख निरखत, रहत न एक घरी।
ज्यौं-ज्यौं राखत जतनन करि-करि, त्यौं-त्यौं होत खरी।।
गड़ि मरि रहीं रूप-जलनिधि में प्रेम-पियूष भरी।
सूरदास गिरिधर नग परसत लूटत निधि सगरी।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

(श्लोक)

हे देव! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करुणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।

सखि- हे सखी! अब नँदनँदन कौ बन सौं आयबे कौ समय निकट ही आय गयौ है। सो अब प्यारी जी कूँ सीस-महल के झरोखान में विराजमान कर देऔ, वहीं सौं ये प्यारे के दरसन करि लेयँगी और या बात की काहूँ कूँ खबर हू न परैगी।

(श्रीकृष्ण-मधुमंगल-आगमन)

समाजी-

पद (राग पूरिया, ताल-चौताल)

हाँकें हटक-हटक गाय ठठक-ठठक रहीं,
गोकुल की गली सब साँकरी।
जारी-अटारी, झरोखन मोखन झाँकत,
दुरि-दुरि ठौर-ठौर ते परत काँकरी।।
कुंद कली चंप-कली बरषत रस-भरी,
तामें पुनि देखियत लिखे हैं आँक री।
नंददास प्रभु जहीं-जहीं द्वारें ठाड़े होत,
तहीं-तहीं माँगत बचन लटकि-लटकि जात,
काहू सौं हाँ करी, काहू सौं ना करी।।

पद (राग-गौरी, तीन ताल)

कमल मुख सोभित सुंदर बेनु।
मोहन ताल बजावत, गावत, आवत चारें धेनु।।
कुंचित केस सुदेस बदन पर, जनु साज्यौ अलि सैनु।
सहि न सकत मुरली मधु पीवत, चाहते अपने ऐनु।।
भृकुटी कुटिल चाप कर लीने, भयौ सहायक मैनु।
सूरदास प्रभु अधर-सुधा लगि उपज्यौ कठिन कुचैनु।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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रविवार, 25 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

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🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।

श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-

(श्लोक)

वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।
अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?

श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।

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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

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श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।

श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-

(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।

अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।

सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?

श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।

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पद (राग आसावरी, तीन ताल)

बात हिलग की कासौं कहियै।
सुन री सखी बिबस्था तन की,
समुझि-समुझि मन चुप करि रहियै।
मरमी बिना मरम को जाने,
यह उपहास जानि जिय सहियै।
चत्रभुज प्रभु गिरिधरन मिलैं जब,
तबहीं सब सुख संपत्ति लहियै।।

सखी- हे प्यारी! कछू तो कहौ, स्वजनन के समीप गोपन करिबे तैं मंगल नहीं होय है।

श्रीजी- ‘अयि निष्ठुरे चित्रलेखे, त्वमेव पृच्छस्यपि नः?’ – अरी निष्ठुर, और तो बूझैं हैं सों बूझैं हैं; तू हू मोते बूझै है?

सखी- ‘हे राधे, कर्हिचिदपराद्धस्मीति न स्मरामि’- हे किशोरी जू, मोते कबहुँ अपराध बनि गयो है- सो तो मोकूँ स्मरण नहीं है।

श्रीजी- ‘अयि निष्कृपे, कस्मादेवं भण्सि, स्मृत्वा पश्य’- अरी क्रूर चित्रे, तू ऐसी बोलन काहे कूँ बोलै है- नैंक स्मरण करिकैं देख।

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बुधवार, 21 सितंबर 2016

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पद (राग आसावरी ताल, चौताल)
कृष्न नाम जब ते मैं स्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन मैं तौ बावरी भई।
भरि-भरि आवत नैन, चितहू न परत चैन,
मुखहू न फुरत बैन, तन की दसा कछु औरही भई।
जेतेक नेम-धरम कीने मैं बहुत बिधि,
अंग अंग भई हौं तौ स्रवन मई।
नंददास प्रभु जाके स्रवन सुनें यह गति भई,
माधुरी मूरति कैधों कैसी दई।।

(दोहा)
प्रानन ते प्यारी अहो सखियौ! तुम सुनि लेहु।
जानौ तुम बरनन करौ, चित्र तासु लिखि देहु।।
सुन्यौ हमहुँ कछु नंदसुत अति मन हर तन श्याम।
चित्र देखि मैं परखिहौं जाहि सराहत बाम।।

श्रीजी- हे मेरी मन भावती सखियौ! जिन कौ तुम बरनन करि रही हौ, उन रूप-सागर कौ एक चित्र तौ मोकूँ दिखाऔ।
ललिता- हे प्रिय चित्रे! तुम या कला में परम निपुन हौ, सो स्याम सुंदर कौ एक सुंदर चित्र लिखि कैं प्यारी कूँ दरसन कराऔ।
चित्रा- हाँ, अब ही लाऊँ।

(श्रीकृष्ण कौ चित्र श्रीजीकूँ दिखावैं)
सखी- हैं सखी! प्यारी कूँ ये कहा भयौ, ये तौ चित्र देखि चित्रलिखी सी रहि गईं। अबही ते प्रेम के प्रबाह में कहा लोकलाज बहि गई? अपनो चित्त प्यारे के अरपन करि कहा बेचैन है गई? किसोरी प्यारी, चित्र कूँ देखि कैं यह आपकी कहा गति भई? ने तो खोलौ, कछू मोते बोलौ तो सही।

श्रीजी- सखी, कछू बात नायँ। मोकूँ नींद आवै है सो सोयबौ चाहूँ हूँ।
(श्रीजी कूँ सयन कराय दै हैं)

श्रीजी- (सयन-अवस्था में) प्यारे, या सुंदर मुखारबिंद पै बलिहारी जाऊँ ये मुख सुंदरता की रासि है।

(श्लोक)
मधुरं मधुरं वपुरस्य विभोर्मधुरं मधुरं वदनं मधुरम्।
मृदुगन्धि मृदुस्मितमेतदहो मधुरं मधुरं मधुरं मधुरम्।।

भावार्थ- अहा मेरे मोहन चित-चोर! तुम्हारौ समस्त श्रीअंग कितनौ मधुर है-मधुर है! ता पै जो मुख-कमल है, सो तौ मधुर है, मधुर है, मधुर है। और ता मुख-कमल पै जो सुगंधित भीनी हँसन है, सो तो हाय, हाय, मधुर है, मधुर है, मधुर है, मधुर है। मधुरातिमधुर है। अहा, कहा यह माधुर्य की रासि है कि साच्छात् मेरे प्रान ही हैं? जो मेरे ही प्रान हैं तो मोते दूर कहाँ जाय रहे हौ? नैंक तो ठहरो, कहा चले ही जाओगे? अच्छौ, जाऔ चले जाऔ, मैं आप ही पतौ लगाय लऊँगी। (चौंकि कै उठनौ-इन-उत कूँ देखनौ)

सखी- हे प्यारी जू! कहा भयौ, आप इत-उत कूँ क्यौं देखि रही हौ? कहा कोउ बस्तु खोय गई है?

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सोमवार, 19 सितंबर 2016

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(सवैया)

मोतिन की सुथरी दुलरी बर, सोहत सुंदर सीस टिपारौ ।
आनन पानन रंग रच्यौ, निरखैं चखि चंचल लोचन तारौ ।।
गोकुल गाँव गली बिहरैं लिएं कंजकली कर रूप उज्यारौ।
गुच्छन के अवतंस लसैं सिखिपिच्छन अच्छ किरीट बनायौ।
पल्लव लाल समेत छरी कर-पल्लव में मतिराम सुहायौ।।
गुंजन के उर मंजुल हार निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयौ।
आज कौ रूप निहारि, सखी! हम आजहि आँखिन कौ फल पायौ।।

(राग भैरव, ताल चौताल)

ऐसे गोपाल निरखि तिल-तिल तन वारौं।
नवकिसोर मधुर मुरति सोभा उर धारौं।।
अरुन तरुन कंज नयन, मुरली कर राजै।
ब्रजजन-मन-हरन बैनु मधुर-मधुर बाजै।।
ललित बर त्रिभंग सु-तन बनमाला सोहै।
अति सुदेस कुसुम-पाग उपमा कौं को है।।
चरन रुनित नूपुर, कटि किंकिनि कल कूजै।
मकराकृति कुंडल छबि सूर कौन पूजै।।

 (श्लोक)

तत्कैशोरं तच्च वक्त्रारविन्दं तत्कारुण्यं ते च लीलाकटाक्षाः।
तत्सौन्दर्यत सा च मन्दस्मितश्रीः सत्यं सत्यं दुर्लभं दैवतेषु।।

अर्थ- अरी सखी, नटनागर बिहारी श्रीकृष्णचंद्र की वह नवकिसोर-अवस्था, वह मुखारबिन्द, वह करुणा, वे लीलाकटाच्छ, वह सौंदर्य, वह मुसकान-माधुरी देवतान में हू दुर्लभ है।

(पर्दा में)

श्रीजी- अहाहा! यह मधुर नाम मोय कौन नें सुनायौ? कितनो मधुर है? कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण!

(श्लोक)

तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावलीलब्धये
कर्णक्रोडकडम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम्।
चेतःप्रांगणसंगिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं
नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्णद्वयी।।

भावार्थ- ‘कृष्ण’- ये द्वै अच्छर जिह्वा बोल है तौ अनन्त जिह्वान की आकांक्षा उदय करावै हैं। ‘कृष्ण’- ये द्वै वर्ण कर्णन में प्रबेस करत ही दस कोटि कर्णन की लालसा करावै हैं। ‘कृष्ण’- ये द्वै अच्छर अंतःकरण में प्रकट होत ही समस्त इंद्रियन की चेष्टान पै विजय करि कैं चित्त कूँ तन्मय करि देय हैं। न जें बिधाता नें कितेक अमृत के पूर सौं ये द्वै अच्छर ‘कृष्ण’ की रचना करी है। अहा! कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण।

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