🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹❄ *श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य* ❄🌹
🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
( गत ब्लाग से आगे )
🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :
श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।
श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-
(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।
अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?
श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।
( शेष आगे के ब्लाग में )
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
https://plus.google.com/113265611816933398824
🌹 एक बार प्रेम से बोलिए ...
🙌🏻 जय जय श्री राधे .....🙌🏻
🌹 प्यारी श्री राधे ....... 🌹
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🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹❄ *श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य* ❄🌹
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🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :
श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।
श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-
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वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
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अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?
श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।
( शेष आगे के ब्लाग में )
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