मंगलवार, 30 अगस्त 2016

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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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 🌹❄श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य❄🌹

🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

पद (राग पीलू, ताल अद्धा)

रहे दोउ बदन निहारि-निहारि ।
फूलनि बीनत सबै सखी उत, इत स्यामा सुकुमारि ।।
लता करनि में रहि गइँ इत-उत, कौन सकै निरवारि ।
नागरिया मिले नैन दुहुनि के, बड़े ठगनि ठगवारि ।।

(श्रीजी सखिन की ओर जायँ, ठाकुरजी लतान में छिपि जायँ)

सखी- प्यारी! हम सब तौ झोरी भरि-भरि कैं बौहौत फूल लाई हैं, परंतु आपकी झोरी में तौ थोरे से ही फूल दीखैं हैं, और आपकौ मुख हू उदास है। कहा बात है गई, कछू बताऔ तौ सही।

श्रीजी-

पद (राग-चैती, ताल धीमा तिताल)

फुलवा बीनन हौं गई री जमुना-कूल द्रुमन की भीर ।
अरुझयौ आय अरनि की डरियाँ तिहिं छिन री मेरौ अंचल चीर ।।
तब कोउ आय अचानक निकस्यौ मालति लता सघन मंझार ।
बिना कहें मेरौ पट सुरझायौ, इकटक मो तन रह्यौ निहारि ।।
पट सरुझाकर मन अरुझायौ, कहा कहूँ लज्जा की बात ।
हौं गुरुजन जर दबी जात री, इत वे सैननि हा-हा खात ।।
नाम न जानौं वाकौ, स्याम बरन हुतौ, पीत बरन बर हुतौ री दुकूल ।
वाहि बन लै चलि नागरिया फिरि बीनन साँझी के फूल ।।

सखी! मैं फूल बीनत-बीनत जमुना तट पै जाय पौहौंची। तहाँ अरनी की डार में मेरौ अंचल उरझि गयौ ।

सखी- तौ हम कौं क्यौं न बुलाय लीनी?

श्रीजी- अरी, मैंनें तुम सबन के नाम लै लै-कैं हेला दिए, परंतु काऊ नें नायँ सुनी।

सखी- तौ कौन नें सुरझायो?

श्रीजी- सखी! तब वा मालती कुंज में सौं लता हटामतौं भयौ मेरी ही दाईं एक बड़ोई सुकुमार निकसि कैंनें आयौ। वा बिना हीं कहें मेरौ अंचल सुरझाय दियौ और इकटक मेरी ओर देखिबे लग्यौ। वानें मेरौ वस्त्र तौ सुरझाय दियौ, परंतु मेरौ मन उरझाय लियौ। और तोसौं का कहूँ, कहिबे में लाज लगै है- सखी! मैं तो सकुच के मारैं दबी जाय रही और उतकूँ वह नैनन में हीं मेरी हाहा खाय रह्यौ।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 22 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(श्रीजी कौ अंचल फूल बीनत में एक बृच्छ की डारी सौं उरझि जाय। तब श्रीजी सब सखीन कौ नाम लै लै कैं हेला दैं, परंतु कोई सकी नहीं सुनै। तब उन लता-कुंजन सौं ठाकुर जी पधारि कैं वा वस्त्र कूँ सूरझाय दैं और इकटक श्रीराधा-मुख चंद्र के दरसन करते रहें)

पद (राग शुद्ध सारंग, ताल धमार)

आनँद सिंधु बढ़यौ हरि तन में।
राधा-मुख पूरन ससि निरखत उमगि चल्यौ ब्रज बृंदाबन में ।।
इत रोक्यौ जमुना, उत गोपिन, कछूक फैलि पर्यौ तिभुवन में ।
ना परस्यौ करमठ अरु ग्यानी, अटकि रह्यौ रसिकन के मन में ।।
मंद-मंद अवगाहत बुधि-बल भक्त हेतु लीला छिनु-छिनु में ।
कछुक लह्यौ नँदसूनु कृपा तें, सो देखियत परमानँद जन में ।।

(दोहा)

मिलत नवावत नव लता, अंचल छुटत दुकूल ।
इत-इत बाढ़ी दुहून मन फूलन बीनत फूल ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 20 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

प्रिये! जब-जब आप या बन में पधारौ हौ, तब ही तब यहाँ अद्भुत सी बात देखिबे में आवै है। या बन के फूल-फल, बेलि बीरूध आप के दरसन करत ही प्रफुल्लित है जायँ है। बृच्छन पै बैठे तोता, पपैया, कोकिलाएँ मधुर-मधुर सुर सौं बोलि कैं फूल झरावैं हैं, मानौं ये आपकी फूलन सौं सेवा करि रहे होयँ, और इन बृच्छन की डारैं फूलनि तथा फलनि के भार सौं झुकि कैं धरती कूँ छी रही हैं, मानौं ये बृच्छ अपनी डारी रूप हाथन में फल लैकैं आप के चरनन में भेट करि रहे होयँ। और ये मतवारे भौंरा कैसी मधुर गुंजार करि रहे हैं, मानौं या बन में आप के पधारिबे सों प्रसन्न होय हृदय की हुलास सौं आप के निर्मल जस कौ गान करि रहे होयँ।

श्रीजी- सखीयौ! अब तुम सब न्यारी-न्यारी भाँति के फूल लाऔ, और मैं इत माऊँ जमुना तट की कुंजन में सौं सुंदर फूल लाऊँ हूँ।

समाजी-

(दोहा)

हरषि फूल वीनत अली, डलिया काँख लगाय ।
नबल बाल बृषभानु की न्यारे चली सुभाय ।।
औचक पट अरुझयौ प्रिया, परसि कटीली डारि ।
कहँ ललिता चंपकलता, कहत पुकारि-पुकारि ।।
सघन मालती कुंज, तहँ ठाड़ी लली सुजान ।
नबल कुमार ब्रजराय कौं दई दिखाई आन ।।
नैननि सौं नैना मिले, इकटक रहे निहारि ।
इन अरुझी अँखियान कौं कौन सकै निरवारि ।।
तब नागर नँदलाल नें पट दीयौ सुरझाय ।
पै मन अरुझयौ दुहुँन कौ, घर कौं चल्यौ न जाय ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(लतान की ओर देखि कैं)
हैं, ये प्रकस काहे कौ भयौ? हाँ-

(दोहा)

गजगामिनी भामिनी मेरी आवत इतहिं लखात ।
दुरि या तरु की ओट में सुनूँ रसीली बात ।।

गज-गति सौं चलिबे बारी मेरी प्रिया अपनी सहेलीन कूँ संग लै इतही कूँ पधारि रही हैं, सो मैं, इन लतान में दुबकि कैं इन की रसीली बार्ता सुनूँ।

(श्रीकृष्ण मालती लतान में छिपि जायँ)

पद (राग-देस, ताल रूपक)

यह बन आप ही सौं सुहात ।
परत ही तुव चरन यहाँ कुछ होत अद्भुत बात ।।
फूल-फल, द्रुम बेलि-बीरुध, सबहि अति सरसात ।
बृच्छ चढ़ि सुक-कोकिला-पिक बोल, फूल झरात ।।
डार द्रुम फल-भार सौं झुकि-झूमि भुव परसात ।
मनहुँ निज फल भेट लै तुव पद-कमल सिर नात ।।
मत्त मधुकर दल सबहि मिलि मधुर सबद सुनात ।
मनहुँ बल्लभ आगमन लखि बिमल तुव जस गात ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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बुधवार, 17 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(स्वागत)

पद (राग हमीर, तीन ताल)
मोहि अति लागत श्रीबन नीकौ ।
बिकसित कुसुम सुबासित चहुँ दिसि, सुंदर सब्द अली कौ ।।
बोलत सुक-पिक, डोलत खग-मृग, अद्भुत नृत्य सिखी कौ ।
बल्लभ कृष्न जदपि सुख-सागर, प्रिया बिना सब फीकौ ।।

यह श्रीबन मोकूँ बहुत ही प्यारौ लगै है; या में मोगरा, कुंद, केतकी, मालती, मोतिया, चमेली, चंपा, गुलाब, गैंदा, सेवती, निवारौ, राइबेल, पारिजात, कदंब, पलास, कमल तथा औरहू नाना भाँति के पुष्प खिले हैं। और कैसी सुंदर लताएँ झुकी हैं, तिनमें पुष्पन की गंध सौं मतवारे होय भौंरा कैसी गुंजार करि रहे हैं। बृच्छन की डारिन पै बैठि कैं तोता, पपैया, कोकिला कैसे मधुर-मधुर बोलि रहे हैं। और ये मोर कैसो अद्भुत नृत्य करि रहे हैं! सीतल मंद सुगंधित पवन चलि रही है। जद्यपि यह वृंदाबन सब सुखन कौ समुद्र है, तथापि मेरी प्रानेस्वरी श्रीराधा बिना यह सब फीकौ लगै है।

(अरिल्ल छंद)

साँझी-सुख-समूह कौन बिधि बिलसिहों ।
प्रानप्यारी राधा बिनु क्यौं हुलसिहौं ।।
तुव मुख कमल पराग नैन अलि मेरे हैं ।
मम सिर मंडन करन चरन बलि तेरे हैं ।।
कुटिल अलक आस्त्रय ते कुटिल भयौ मन मेरौ ।
सरल होउँगौ निरखि सरल मुख हेरें तेरौ ।।
साँझी हित बीनन फूल यही बन आइहौ ।
यहि आसा, याही मिस दरसन पाइहौं ।।

हाँ, साँझी चीतिबे कूँ फूल लैबे के ताईं या बन में अवस्य पधारैंगी सो यहाँ ही उनके दरसन है जायँगे।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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मंगलवार, 16 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

 ‘पद-रत्नाकर’ से ......

(राग देश-तीन ताल)
दोऊ सदा एक रस पूरे ।
एक प्रान, मन एक, एक ही भाव, एक रँग रूरे ।।
एक साध्य, साधनहू एकहि, एक सिद्धि मन राखैं ।
एकहि परम पवित्र दिब्य रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं ।।
एक चाव, चेतना एक ही, एक चाह अनुहारै ।।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै ।।

🌹 श्रीसाँझी-लीला :

🌹 मंगलाचरण :

(श्लोक)
राधाकरावचितपल्लववल्लरी के राधापदांकविलसन्मधुरस्थली के ।
राधायशोमुखरमत्तखगावलीके राधाविहारविपिने रमतां मनो मे ।।

‘हे मेरे मन! तू श्रीराधा कर कमल सौं स्पर्श करे भए पल्लवन वारी वल्लरीन सौं मण्डित, श्रीराधा-पदांकन सौं सोभित मनोहर स्थलन सौं युक्त एवं श्रीराधा-यशगान सौं मुखरित मत्त खगावली द्वारा सेवित श्रीराधा-कुञ्ज-केलि-कानन श्रीबृन्दाबन में रमण कियौ कर।’

समाजी-

पद (राग ईमन, तीन ताल)
और कोऊ समझौ सो समझौ, हम कूँ इतनी समुझ भली ।
ठाकुर नंदकिसोर हमारे, ठकुराइन बृषभान-लली।।
श्रीदामादिक सखा स्याम के, स्यामा सँग ललितादि अली ।
ब्रजपुर बास, सैल-बन बिहरन, कुंजन-कुंजन रंग रली ।।
इन के लाड़ चहूँ सुख अपनौ, भाव-बेलि रस फलन फली ।
कहैं भगवान हित रामराय प्रभु सब ते इन की कृपा बली ।।

श्रीजी-

पद (राग धुन गारौ, तीन ताल)
बृंदाबन फूलन सौं छायौ ।
चलौ सखी फुलवा बीनन कूँ साँझी कौ दिन आयौ ।।
प्रेम-मगन ह्वै साँझी चीतौ, पचरँग रंग बनाऔ ।
बृंदाबन हित रूप लाल के मन में मोद बढ़ाऔ ।।

सखीयौ! साँझी के दिन आय गए हैं, सो चलौ बृंदाबन में सौं फूल बीनि ल्यावैं, ता पाछें अनेक रंगन के फूल भरि कैं ऐसी साँझी सजाऔ, जाकौं देखि कैं प्यारे स्याम सुंदर अति प्रसन्न होयँ।
सखी- हाँ, प्यारीजी! बृंदाबन में बड़े ही सुंदर फूल खिले हैं, अब बेगि ही पधारौ ।
(श्रीजी सब सखीन कूँ संग लै कैं बृंदाबन पधारैं) (पटापेक्ष)
श्रीकृष्ण-(बृंदाबन में विराजे हैं)

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 15 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

यशोदा- तौ सखीयौ, तुमहीं लै आऔ।
सखी- नहीं, नहीं हम स्याम-कलंकिनी हैं।
यशोदा- अरी, एक जटिला नाम की वृद्धा जावट में रहै हैं, वाकूँ बुलाऔ।
(जटिला कूँ बुलाय सब बात कहनी)
जटिला- मैं अपनी सती-बल सौं कठिन सौं-कठिन काम करि सकूँ हूँ अबहीं जाऊँ।

समाजी-

(चौपाई)
जबही पाँव सेतु पै डार्यौ, सो तौ बल नैंकहुँ नहिं धार्यौ ।।
टूटि गयौ सो पाँव धरत ही, सो जमुना में जात बहत ही ।।
ताही छिनु जो भई नभ बानी, भरि न सकौ तुम जमुना पानी ।।
हौ तुम सती सो ब्रज नें चीन्ही, तुम राधा की निंदा कीन्ही ।।
तुम्हरौ सब बल घटि गयौ तासौं, सेतु न पार करि सकौ यासौं।।

वैद्य- मैया, मैं और उपाय बताऊँ हूँ ब्रज में एक परम सती हैं, उनकी चरन-रज सौं बिस्व पावन होयगौ। उनहीं कूँ बुलाऔ। उनकौ नाम है श्रीराधा वे वृषभानुजी की पुत्री हैं।

सखी- (बुलाय कै लावै, उन सौं सब बात कहै, श्रीजी कलश लैकें जमुनाजी पै जायँ)

समाजी-

पद (राग धूरिया मलार, तीन ताल)
आवत ही घट लियौ उठाई।
प्रथम प्रनाम सेतु कौं कीनौ, तापर आप चढ़ी हरषाई ।।
तीन बार जमुना पै इत-उत, बीच धार जल घट भरि लाई ।
जै हो जै हो सती राधिका! ब्रजबासिन सब धुनी लगाई ।।
बरषत सुमन चहूँ दिसि नभ सौं, हरषि सुरन दुंदुभी बजाई।
पुनि कह्यौ वैद, देवि! अपने कर नैनन सौं जल देहु छुबाई ।।
देखत नंद घरनि मन हुलसी, हरखि उठे तब कुँवर कन्हाई ।
तब जुबती अपराध छमायौ, कह्यौ कोउ राधा सम नाहीं।

पद (राग बहार, तीन ताल)
धन्य, धन्य, बृषभानु कुमारी !
धनि माता, धनि पिता, धन्य ब्रज, धनि तो सी उपजाई प्यारी ।।
धन्य दिवस, धनि निसा तबहि की, धन्य घरी, धनि जाम ।
धन्य कान्ह तैरौ बड़भागी, धनि बस कीने स्याम ।
धनि मति, धनि गति, धनि तेरौ हित, धन्य भक्ति, धनि भाव ।
सूर स्याम पति धन्य, नारि तू धनि, धनि एक सुभाव ।।

।। श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला संपूर्ण ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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रविवार, 14 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीराधा-

पद (राग भीमपलासी, ताल कहरवा)
ऐ री मोहि स्याम सुंदर सौं आनि मिलावै कोय ।
मेरे तौ, मोहन! तुम ही हौ जीवन-प्रान-अधार ।
बीच भँवर मेरी नाव परी है, तुम ही खेवनहार ।।
चाहौ तौ अब पार करौ, चाहौ तुम देहु डुबोय ।।1।।
भाव हृदय के फूल मँगाए, आसा की कर डोर ।
स्वास-सुई में आँसू गूँथे, नेह-छोर दियौ जोर ।
लीए री मैंने स्याम रंग में तन मन सबहि भिजोय ।।2।।

प्रीतम! बस, इतनौ हीं चाहूँ कि जीवन में, मृत्यु में, जन्म-जन्मान्तर में तुम ही मेरे प्राननाथ बने रहौ, तुम्हारे चरन और मेरे प्रानन में प्रेम की गाँठ लगी रहै। मैं तुम्हारे चरनन में अपनौ जीवन समर्पित कर चुकी, प्रानेस्वर! त्रिभुवन में तुम्हारे सिवाय मेरौ और कौन है, जो मोकूँ राधा कहि कैं पुकारै? कहाँ जाऊँ, चारों ओर ज्वाला जरि रही हैं; वाकूँ सीतल करिबे कूँ केवल आपकौ ही मुखचंद्र है। वाके सिवाय और मेरी गती ही कहाँ है। तुम यदि दूर फेंक देऔगे तो मैं अबला कहाँ जाऊँगी। तिहारे बिना देखें मेरे प्रान निकसिवे कूँ आतुर है जायँ हैं। प्रीतम! कहा साँचें ही मोकूँ आपसौ सौ बरस अलग रहनौं परैगो? हाय! जा समय मैंनें सुदामा कूँ श्राप दियौ, तब मेरी जीभ क्यों न जरि गई? प्राननाथ ! प्यारे !

 (पटापेक्ष)

(सखी दौरि कैं जसोदा जी सौं कहैं)
सखी-अरी मैया! देख, न जानें तेरे लाला कूँ कहा है गयौ। वाकूँ चेत ही नहीं होय है।
यशोदा- अरी, लाला है कहाँ?
सखी- खिरक में है।
यशोदा- (खिरक में पहुँचि कै कृष्ण कूँ देखनौं)
हाय! हाय! याकूँ तौ न जानें कहा है गयौ? काहू उपचारक कूँ बुलाऔ।
(श्रीकृष्ण की अनुहारि एक वैद्य, लतान सौं निकसि कैं आवैं)
वैद्य- मैया, याकौ मैं उपाय बताऊँ हूँ। मेरे पास ये एक हजार छिद्र वारौ कलस है, याकूँ कोई सती स्त्री लैकैं जमुना जी पै जाय वहाँ कन्हैयाँ के केस कौ एक सेतु बन्यौ भयौ है, वा सेतु पै तीन बार या पार सौं वा पार होय बीच धार सौं जल भरि कैं लावै, तब वा जल सौं लाला ठीक होयगौ।
यशोदा- वैद्यजी, ये बात तौ असंभव है।
वैद्य- व्रजरानी जी! सती की महिमा अपार होय है। सती सून्य पैं चलि सकै, आकास में जल स्थिर करि सकै। और यह ब्रज तौं सतीन के लिए विख्यात है।
वैद्य- हाँ, हाँ, आप तौ लाय सकौ, किंतु मैया के हाथ कौ जल या समय काम नहीं आय सकै।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 13 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण- हे किसोरी जू! आज आप कूँ जल भरिबे कूँ बहुत देर भई।

श्रीजी- कहा कहूँ, प्यारे? आप की लीला आप ही जानौ ।

(सवैया)
देखे बिना छिनहुँ, मन-मोहन! ये अँखियाँ अतिही अकुलानीं ।
लाज तजी, कुल-कानि नसी, तुम्हरे हित में नित आवत पानी ।।
अब तौ यह जीवन भार भयौ, अपने किए कौं आपुहि पछितानी ।
सगरौ ब्रज मेरौ जबाब करै, सो तजौं अब देह, यही मन ठानी ।।

प्यारे! अब या लीला कूँ यही समाप्त करि देउ। ब्रज की लुगाइन ने हमारी और आपकी बुराई करनौ ही जीवन कौ आदर्श बनाय राख्यौ है। सुनि-सुनि कैं हृदय जर्जर है गयौ है। कान बहिरे भए जाएँ हैं। यासौं या मृत्युलोक कौ जीवन असह्य है गयो है। काहू दिनाँ या देह कूँ जमुना में डुबोय दऊँगी, यही मनमें आवै है।
 
     श्रीकृष्ण- प्रिये! धैर्य धारन करौ, अबहीं तौ प्रथम चरन है। अबहीं हमने जीवन-समूह के कल्याणार्थ तौ कछू कियौ ही नहीं है। अब कार्य प्रारंभ भयो है, सो आप सब जानौ हौ। आपनें गोलोक में जो सुदामा गोप कूँ श्राप दियौ और सुदामा नें आप कूँ मोते सौ बरस अलग रहिवे की बात कही, सोहू पूरी करनी हीं परैगी। आपनें ही या लीला की रचना करी है, अब याकूँ समयानुसार आप ही पूरी करौगी। यासौं जानि-बूझि भोरी मत बनौ। मेरे ऊपर सदैव ऐसी कृपा राखियौं, जासौ मैं सब कार्य में सफल होतौ रहूँ और याहू बात कौ आज निर्नय है जायगौ। अब आप घर पधारौ।

(श्रीजी अपने घर पधारैं)

श्रीकृष्ण- हाय! मेरे ही कारन किसोरी जी कूं इतनौ सहनौ परै है। जो सिव-बिरंचि-अंगिरादिकन के ध्यान में नहीं आवैं, वे ही मोते मिलिबे कूँ जमुना-जल के मिल सीस पै भारी गागर लैकैं नंगे पायन पधारैं हैं! प्यारो, यह कान्ह आपकौ अपराधी है, हे दयामयी, मेरे अपराध कूँ छमा करौ।

(श्रीकृष्ण कौ मूर्छित हौनौं) (पटापेक्ष)

(श्रीराधा अपने कक्ष में बैठी फूल-माला बनावैं, सामने श्रीकृष्ण कौ चित्र रहै)

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

पद (राग पीलू, तीन ताल)

कब की गई न्हान तू जमुना, यह कहि-कहि रिस पावै ।
राधा कौ तुम संग करत हौ, ब्रज उपहास उड़ावै ।।
वे हैं बड़े महर की बेटी, तो ऐसी कहि आवै ।।
सुनौ सूर यह उनही भावै, यह कहि-कहि जो डरावै ।।
(श्रीजी पर्दा की ओर सौं सुनि, घबराय कान बंद करैं; गागर लैकैं जमुना जानौं)

(श्रीकृष्ण अकेले जमुना पै बैठे गावैं)

श्रीकृष्ण-

(कवित्त)

फूलि रही लता, द्रुम-डारी हरी झूमि रहीं,
चहुँ हरियाली सौं लुभात अति जीकौ है।
दादुर-पुकार, झनकार सुनि झींगुर की,
मोरन कौ नृत्य सब्द कोयल अमी कौ है ।।
बादर की गरज औ लरज नीकी दामिनि की,
पवन सुगंध मानों वार बरछी कौ है ।
गहबर बन नीकौ, बास खोर साँकरी कौ,
लगे कुँवर नहिं जीकौ आज प्रिया बिना फीकौ है।

(श्रीजी जल भरिबे पधारैं)

समाजी-

पद (राग खंभावती, तीन ताल)

कृष्ण दरस सौं अटकी ग्वालिन ।
बार-बार पनघट पै आवत, सिर जमुना जल-मटकी ।।
मन-मोहन कौ रूप-सुधा-निधि पिवत प्रेम-रस गटकी ।
कृष्नदास धनि-धन्य राधिका, लोक-लाज सब पटकी ।।

पद (राग देश, तीन ताल)

चितवनि रोकें हूँ न रही ।
चितवनि रोकें हूँ न रही।
स्याम-सुंदर सिंधु सनमुख सरिता उमगि बही ।।
प्रेम सलिल प्रबाह भँवरनि मिति न कबहुँ लही ।
लोल लहर कटाच्छ, घूँघट-पट करार ढही ।।
थके पलकन नाव धीरज परत नाँहि गही ।
मिली सूर समुद्र स्यामहिं फिरि न उलटि बही॥

( शेष आगे के ब्लाग में )

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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

(श्लोक)
अकारुण्यः कृष्णो यदि मय तवागः कथमिंद
मुधा मा रोदीर्मे कुरु परमिमामुत्तरकृतिम् ।
तमालस्य स्कन्धे सखि कलितदोर्वल्लरिरियं
यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठति तनुः ।।

अर्थ- जमुना किनारें जो तमाल बृच्छ दीखै है, वाकौ वर्ण मेरे प्रीतम-जैसौ स्याम है। बस, मेरे लिए इतनौ ही पर्याप्त है कि वा तमाल बृच्छ की मोटी साखा पै मेरे मृतक सरीर कूँ लिटाय दीजौं और मेरे दोऊ हाथन कूँ तमाल- साखा सौं लपेट अच्छी तरह बंधन लगाय दीजौं कि जासौं चिरकाल ताईं मेरौ यह सरीर बृंदावन में ही तमाल-साखा पै बिस्राम करतौ रहै। परंतु वा चित्र कूँ तौ एक बार औरहू देखि लऊँ, साच्छात तौ वा त्रैलोक- मोहन मुख चंद्र कूँ नहीं देख सकी? प्रान निकरिबे ते पहिलें वा चित्र कूँ औरहू दिखाय दै, जासौं मेरे प्रान सीतल है जायँ और वा त्रिभंग-सुंदर छबि में अनंत काल के ताईं लीन है जायँ।

सखी- प्यारी, वह चित्र तौ घर है।

श्रीजी- हाय! हाय! इतनौ हूँ सौभाग्य नहीं। आऔ, प्यारे प्रानेस्वर!

 (दोहा)
एक बार तौ आय कैं, नाथ! दरस दै जाव ।
अंतिम की अभिलाष है, याहि मती ठुकराव ।।
(श्रीकृष्ण पधारैं)
श्रीकृष्ण-

(दोहा)
हे राथे मन-भाँवती, रूप-रासि, गुन-धाम ।
तेरी ही स्वासा बँध्यौ आयौ तेरौ स्याम ।।
(दोनो अंक भरि भेटैं)(पटापेक्ष)

एक वृद्धा-क्यों री, बहू! कहाँ गई हती? इतनी दे कैसें भई?

बधू-अजी सासूजी, मैं जमुना स्नान करिबे गई हती।

वृद्धा-हूँ! हूँ! वहाँ राधा मिलि गई होयगी, सो वासौं बतरावन घुटी होयगी। हमें तेरी यह बात अच्छी नायँ लगै, भले घर की बहू बेटी कहा ऐसैं डोलैं? तैनें अब राधा कौ संग लियौ है। वानैं तौ अपने कुल कौ नाम खूब ऊंचौ करि राख्यौ है, वह तौ वा नंद के छोरा सौं बतरायौ करै है।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 8 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर~लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम~ प्रकाश~ लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

वाते दो ही पहर पहिलें श्रीकृष्ण कूँ आत्मसर्पन करि चुकी ही, फिर वा चित्र पै आसक्ति भई, और थोरी देर में सब भलि वा बंसी के नाद प्रवाह में बह गयी, उन्मादिनी है गई, सब सुधि-बुधि भूलि गई। ओह! धिक्कार है मो जैसी कूँ कि जानें तीन पुरुषन कूँ आत्मसमर्पन कियौ, तीन पुरुषन कँ प्यार कियौ। उन तीनोंन के प्रति हृदय में रति उत्पन्न भई। ऐसे जीवन सौं तौ मृत्यु ही श्रेष्ठ है। ऐसे सरीर कूँ अब नहीं राखूँगी, याकूँ तौ अब जमुना के ही भेट करूँगी।’

(भागि कैं यमुना की ओर जानौ; सखी-अंक में भरि लेय)

सखि- प्यारी! हमें कौन के सहारें छोड़ि रही हौ? और आप कहि रही हौ कि मैंने तीन पुरुषन सौं प्यार कियौ, सो वे तौ तीन्यौ एक ही हैं- नाम कृष्न कौ, चित्र हूँ कृष्न कौ और बंसी हूँ कृष्ण की! आप नैंक धीरज धरौ।

श्रीजी- बहिन! तू क्यौं रोवै है, यामें तेरौ कछू दोस नायँ। तैंने तौ श्रीकृष्ण सौं मिलायबे के अनेक प्रयत्न किए, किंतु तू मेरे मंदभाग्य कूँ कैसैं पलटि सकै है।

(कंकन उतारि कै सखी कूँ दैनौं)

लै, बहिन बिसाखे! ये मेरौ स्मृति-चिह्न मेरी प्यारी सखी ललिता कूँ दै दीजौं। किंतु तोय दैबे जोग्य मेरे पास कोई वस्तु नहीं। लै, ये मेरी सदाँ के ताईं अंतिम बिदा की तुच्छ भेट! तू याकूँ अस्वीकार मत करियौं। या मुद्रिका कूँ देखि कैं कबहुँ मेरी याद करि लेऔ करियौं। बस, अब विशेष समय नहीं है, हृदय कूँ पत्थर करि लै। अब अपनी अंतिम बासना और सुनाय रही हूँ, वाकूँ धैर्य धरि कैं सुनि लै।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 6 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीजी-

पद (राग देश, तीन ताल)
स्याम, सखि! नीकैं देखे नाहीं ।
चितवतहीं लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहीं ।।
कैसैंहूँ करि इकटक राखत नैंकहि में अकुलाहीं ।
निमिष मनौं छबि पर रखवारे ताते अतिहि डराहीं।।
कहाँ करूँ, इन कौ कहा दूषन, इन अपनी सी कीनी ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सब सोभा लीनी ।।

हाय-हाय! मेरे हृदय में तौ अग्निकुंड है, धक-धक करती अग्नि जरि रही है। परंतु मैं क्यों नहीं जरूँ हूँ? हाँ, स्याम-जलधर की वर्षा है रही है।
(वेणुनाद सौं चौंकि कैं)
हें, यह काहे की धुनि है?
सखी- प्यारी! यह बंसी ध्वनि है।
श्रीजी- हाय! बंसी-ध्वनि है कि अमृत निर्झर, सुधा प्रवाह?

 (श्लोक)
नादः कदम्बविटपान्तरतो विसर्पन् को नाम कर्णपदवीमविशन्न जाने ।

अर्थ- ओह! यह कदंब बृच्छन सों जानें कैसी ध्वनि आई? यह मेरे कानन में प्रविष्ट है गई। हाय! कदाचित् या अमृत बरसायबेवारे के रूप कूँ देख लेंती।
सखी- अरी, बावरी सखी! यह तौं बंसी-धुनि हती ।
श्रीजी- तौ यह बंसी धुनि कौन की ही? चलि, वाकूँ देखें।
सखी- प्यारी जू! आप तौ न जानें कहा कहा कह रही हो! हमारी तौ समझ में कछू आवै नहीं है।
श्रीजी- हा! हा!! हा!!! सुनौंगी – सु – नौं-

(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धृतशिखिशिखण्डो नवयुवा ।।

अर्थ- महामरकत-द्युति अंग ते सोभा झर रही ही, माथे पै मोरपंख सोभा दै रहौ हौ। नव-किसोर स्यामघन-
सखी- किसोरी! तुम ने सुपनौं तो नही देख्यौ?
श्रीजी- स्वप्न या जागरन, दिन अथवा रात्रि-यह मैं नहीं जान सकी। जानिबे की शक्ति कहाँ रही? वा स्याम ज्योति में सागर लहराय रह्यौ हौ; वह लहर मोहूँ कूँ बहाय लै गई। नाचती भई चंचल लहर में मैं हूँ चंचल है उठी, फिर जानिबे कौ समै ही कहाँ मिल्यौ।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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गुरुवार, 4 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

सखी- वे तौ नंद के लाल श्रीकृष्ण हैं, उनहीं सौं कन्हैयाँ कहैं हैं।
श्रीजी- हाँ, कन्हैयाँ- नामहू बौहौत प्यारौ लगै है।

(पद)
कैसे हैं नँद-सुवन कन्हाई?
देखे नहीं नैन भरि कबहूँ, ब्रज में रहत सदाई ।।
सकुचत हौं इक बात कहति मैं, तुम सौं दऊँ जनाई ।
कैसैंहुँ मोय दिखावौ उन कूँ, यह मेरे मन आई ।।
अतिही सुंदर कहियत हैं वे, मोकूँ देहु दिखाई ।
सूर सखी राधा की बानी सुनत सबै भरि आई ।।

सखी-

(पद)
सुनि राधे तोहि स्याम मिलैं हैं।
जहाँ-तहाँ ब्रज-गलिन फिरत हैं, जबही वे यह मारग ऐहैं।।
जब हम कहुँ उन कूँ देखैंगी, तबही तोहि बुलैहैं।
उनहू कैं लालसा बहुत है, तोहि देखि सुख पैहैं।।
दरसन ते धीरज जब रहिहै, तब ही तोहि पतैहैं।
सूरदास प्रभु नवल कान्हवर पीतांबर फहरैंहें ।।

श्रीजी- (उठिकैं दौरनौ) चलि, उनके पास चलें; वे कहाँ मिलैंगे?
सखी- (पकरि कैं बैठावै) प्यारी! धीरज धरौ ।
(स्यामसुंदर कौ चित्र श्रीजी कूँ दिखानौ)

पद -(राग-तिलक कामोद, ताल-झूमरा)
देख री, नवल नंद किसोर ।
लकुट सौं लपटाय ठाड़े जुबति जन-मन-चोर ।।
चारू लोचन हँसि बिलोकनि देखि कैं चित्त भोर ।
मोहिनी मोहन लगावत लटकि मुकुट-झकोर ।।
स्रवन धुनि सुनि नाद मोहत करत हिरदैं कोर ।
सूर अंग त्रिभंग-सुंदर छबि निरखि तृन तोर ।।

समाजी-

(दोहा)
चित्र देखि भइ चित्र सम, भरि आए जल नैन ।
अंचल सौं पोंछत कुँवरि, बोले जात न बैन ।।

सखी- प्यारी! चित्र देख लियौ, अब याकूँ धरि आऊँ?

( शेष आगे के ब्लाग में )

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मंगलवार, 2 अगस्त 2016

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🌹श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(दोहा)
बिधिनाँ सब बिधि वेद पढ़ि दीनौं ब्याह कराय ।
हृदय राखि छबि जुगल की चले परम हरषाय ।।
कोई यह जानी नहीं लीला परम अनूप ।
लीलामय लीला करन फिर भए बाल सरूप ।।
(श्रीकृष्ण बालरूप सौं श्रीजी की अँगुरिया पकरें घर पधारैं)
श्रीजी-(यशोदाजी कूँ बुलावैं)
मैया, ये लाला मोकूँ बाबा ने खिरक में दियौ, लेऔ ।
यशोदा-ला बेटी! मैं तेरौ बड़ौ गुन मानूँगी ।

(दोहा)
रूप-गुन-बली, अति निपुन, जा सम और न कोय ।
बृद्धा की आसीम है, मिलै तोहि पति सोय ।।
(श्रीजी अपने घर पधार पुनः सखिन के संग फूल बीनबै पधारैं)

समाजी-
(कवित्त)
चलत है सखिन संग छबि सौं छबीली बाल,
जोति छूटी अंग सौं धरनि पर छाई है।
मुसिकन लखि मंद, चंद छिप्यौ है गगन माँहि,
अऩँग-तिय हार लखि हारि मन लाई है ।।
कुँवर, मतिमंद जानि चरन अरबिंद करन
पान मकरंद आज भीर उठि धाई है।
भौंरन की कतारन सौं बटोही हू जानि जात,
भानु की लली आज याही गली आई है।।

श्रीजी- सखी! कहा यही श्रीवृन्दावन है?
सखी- हाँ, प्रिये! यही श्रीकृष्ण क्रीड़ा कानन है।
(सुनतें ही श्रीजी के हाथ सौं फूल की डलिया गिरि जाय)
श्रीजी- सखी! कौन कौ नाम सुनायौ?
सखी- प्यारी, यह श्रीकृष्ण-क्रीड़ा-स्थल है; परंतु आप कूँ यह कहा भयौ? प्यास लगी होय तौ पानी लाऊँ, अपने मन की बात बताऔ।
श्रीजी – श्री-कृ-ष्ण – कृ-ष्ण।
सखी- चलौ, घर चलें।
श्रीजी- ओह, श्रीकृष्ण! कितना मधुर नाम है।
सखी- लाडिली! यह आप की कहा दसा भई? अंग ऐसौ मुरझाय गयौ है, मानों एक पच्छ सों कछु खायौ ही न होय; केस बिखरि गये हैं, सिर पै सारी ठहरै नहीं है, हम सौं बात हू नहीं करौ हौ, नेत्र रोय-रोय कैं लाल करि लिए हैं, कछु हमैं तो बताऔ।

श्रीजी-
पद (राग आसावरी, ताल चौताल)
कृष्ण नाम जब ते मैं स्त्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन मैं तौ बाबरी भई ।
भरि-भरि आवत नैन, चितहू न परत चैन,
मुखहू न फुरत बैन,
तन की दसा कछु और ही भई ।।
जेते नेम धरम ब्रत कीने मैं बहुत बिधि
रोम-रोम भई मैं तौ श्रवन-मई ।
नंददासप्रभु जाके श्रवन सुनें यह गति भई,
माधुरी मुरति किधौं कैसी दई ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण-

(श्लोक)
त्वं मे प्राणाधिका राधा प्रेयसी च वरानने ।
यथा त्वं च तथाहं च भेदो हि नावयोर्ध्रुवम् ।।

हे प्रिया! कहा आप गोलोक की बात कूँ भूलि गईं और मोहू कूँ भूलि गईँ? परंतु- मैं तुम कूँ नहीं भूल्यौ. मैं तुम कूँ भूलि जाऊँ- यह संभव नहीं। प्रिये! मेरे पास तुम सौं अधिक कोई बस्तु नहीं। मैं तुम्हें अपने जीवन की साध कहूँ, सोहू उचित नहीं लगै। वास्तव में हम और तुम दो नहीं- जो मैं हूँ, सो तुम हौ; जो तुम हौ, सो मैं हूँ। हम में नैंक हू भेद नहीं है। जैसे दूध में घौराई है, अग्नि में दाह-सक्ति है, ऐसैं ही हमारौ-तुम्हारौ संबंध है। यदि तुम न रहौ तौ मैं सृष्टि की रचना करिबे में कबहूँ समर्थ नहीं है सकूँ हूँ। कुम्हार मृत्तिका के बिना घट की रचना कर ही नहीं सकै है। स्वर्णकार सुवर्ण के बिना स्वर्ण-कुण्डल नहीं बनाय सकै है। तुम सृष्टि की आधारभूता सक्ति-स्वरूपिणी हौ- वाकौ अच्युत बीजरूप हूँ। सक्ति, बुद्धि, ग्यान, तेज- ये सब मोमें नित्य विद्यमान रहैं हैं। मेरे प्रान तुम्हारे लिए नित्य ब्याकुल रहैं हैं। मैं जा समै काहू के मुख सौं रा- सब्द सुनि लऊँ हूँ, तौ-

(श्लोक)
रा-शब्दं कुर्वतस्त्रस्तो ददामि भक्तिमुत्तमाम् ।
धा-शब्दं कुर्वतः पश्चाद्यामि श्रवणलोभतः ।।

वापै अति प्रसन्न हैकैं मैं अपनी बहुमूल्य संपत्ति प्रेम भक्ति वाकूँ दऊँ हूँ। किंतु अपने मन में भयभीत है जाऊँ हूँ कि वास्तव में ‘रा’ के उच्चारन कौ पुरस्कार तौ दै ही नहीं सक्यौ। और जा समैं वह ‘धा’ कौ उच्चारण करै है, तब तौ में वाकौ रिन चुकायवे में असमर्थ है जाऊँ, और दास बनि वाके पीछै-पीछै लग्यौ डोलूँ। मेरी प्रान-प्यारी कौ नाम मेरे कानन में अमृत-धार बहाय मेरे प्रानन कूँ सीतल-रसमय बनाय देय है।

(पद)
श्रीराधा-गुन गावै प्रीतम राधा-नाम-सुधा बरसाय ।
श्रीराधा के प्रेमांकुर कूँ, राधा-पति ही सींचत आय ।।
भाव-सिंधु उमग्यौ तिहिं अवसर, प्रबल तरंग न तनहिं समाय ।
मथनहार लै प्रेम-रतन कूं, सोऊ तामें चल्यौ बहाय ।।
रस अरु रसिक बहे जब जान्यौ, केवट आतुर लियौ उठाय ।
आज कुँवर पायौ जीवन-फल, विनवत तहाँ चतुर्मुख आय ।।

ब्रह्माजी- देवि! महायोगमणि, महाप्रभामयी मायेश्वरी, श्रीकृष्णचंद्र की आह्लादिनी शक्ति महाभावस्वरूपा श्रीराधा! महान सौभाग्य-फल दैवे कूँ, अति कियौ, वाके फलस्वरूप आपके चरनन के आज दर्शन भए।

(दोहा)
कृष्णरूपिणी, कृष्णप्रिय, पुनि पुनि जाचौं तोय ।
भक्ति अचल होय जुगल पद, कुँवरि! देहु बर सोय ।।

हे श्रीलीला-बिहारी-बिहारिन! अब अपनी लीला कौ कार्य प्रारंभ करौ।

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❄ श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

🌹मंगलाचरण:

(श्लोक)

कदा वा खेलन्तौ व्रजनगरवीथीषु हृदयं
हरन्तौ श्रीरादाव्रजपतिकुमारौ सुकृतिनः।
अकस्मात् कौमारे प्रकटनवकैशोरविभवौ
प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादिनिरतौ।।

अर्थ- कहा कबहूँ मैं श्रीराधा और श्रीब्रजपति-कुमार कौ दरसन करि कैं पूर्णता कूँ प्राप्त होऊँगौ? जो काऊ समय व्रज-नगर की बीथी में खेलत फिरत एकांत पाय अचानक कुमार-अवस्था कूँ त्यागि कैं नव किसोरता के वैभव कूँ प्रगट करि दिव्य हास-परिहास मैं संलग्न है गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम के लिए सौं सुकृती-जनन के हृदय कौ अपहरन करि रहे हैं।

(दोहा)
समाजी-
एक समय भांडीर बट सुतहि लिएं नँद गोद ।
धेनु-निरीच्छन करन कौं पहुँचे अति मन मोद ।।

 (श्लोक)

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै-
र्नक्तं भीरूरयं तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः ।।

(पद)
चकित भए नँदराय जानि यह सीतल-मंद बयार ।
श्रीराधा-अंग-कांति परत बन भयौ सकल उजियार ।।
कोटि चंद्र द्युति सम मुख झलकत, नील बसन सुभ अंग ।
कंचन कंकन हार मुद्रिका दुरे अंग के रंग ।।
भयौ प्रकास प्रथम दिसि, कैंधौं मिले काल यहि ठौर ।
कैसें पच्छिम छाँड़ि छिप्यौ रबि अब पूरब की ओर ।।
कैंधौं आज इंदु-मंडल में घिर्यौ मनिन कौ कोट ।
नंद-कुँवर कर ढाँपि नैन तब झाँकत अंगुरी ओट ।।

(कबित्त)
आजु यह भानु लली आई फूल बीनन कूँ,
देखि छबि कुँवरि बन मन सकुचायौ है ।
अंग की सुगंध ते फूल बिनु गंध भए,
मंद हँसनि देखि अरबिंद हू लजायौ है ।।
पट की फहरानि लखि समीर बिनु लहरि भई,
मुख कौ प्रकास दिस दस हू में छायौ है ।
किधौं आज मावस में उदय चंद पून्यौं भयौ,
किधौं निसि भूलि राह रबि-रथ आयौ है ।।

नंदरायजी- हैं! वृषभानु- कुँवरि? तू या समैं यहाँ कैसें आई? (स्वागत) हाँ, इन ही की अंग –प्रभा सौं ये प्रकास है रह्यौ हौ। ठीक! ये वेई राधा हैं! जब गर्गजी लीला कौ नाम-करन करिबे आए, तब उन नैं वृषभान-पुत्री की महिमा, राधा-तत्व की बात बताई हती। आज वोई रहस्य मेरे सन्मुख आयौ। देबी! मैं जानि गयौ पुरुषोत्तम श्रीहरि की तुम प्रानेस्वरी हौ मेरी गोद में तुम्हारे प्रानेस्वर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि बिराजमान हैं। लेऔ देबी! अपने प्रानेस्वर कूँ लै जाऔ! परंतु बड़े पुन्य प्रताप सौं यह आसारूप लता हरी भई है। सो यापै कृपा-बर्षा करती रहियौं, जासौं यह लता हरी बनी रहै। किंतु या समैं मैंनैं याकूँ पुत्ररूप में पायौ है, सो फिर मोही कूँ बगदाय कैं दै दीजौ।
(श्रीकृष्ण कूँ श्रीजी की गोद में दैनौं नंदराय खिरक में जायँ)
समाजी-
(दोहा)
कमल-पुंज के कर – कमल दीयौ कमल गहाय ।
बूड़ि कमल गये सिंधु में मिल्यौ कमल जब आय ।।
कमल-पुंज श्रीराधिका, कमलरूप घनस्याम ।
कमल-नैन, जलमय भए कमल नैन लखि बाम ।।
मार्ग में श्रीजी के हाथ सौं कृष्ण अन्तर्हित होयँ

श्रीजी- हैं! मेरे हाथ सौं वह बालक कहाँ गयौ? बाबा पूछैंगे, तब मैं उन कूँ कहा उत्तर दऊँगी?

लतान सौं निकसि कृष्ण बड़े रूप में श्रीजी कूँ दर्शन दैं

श्रीजी- तू-तू या समैं कौन, जो मेरी दृष्टि में आय रह्यौ है?

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