🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹❄श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य❄🌹
❄ श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :
🌹मंगलाचरण:
(श्लोक)
कदा वा खेलन्तौ व्रजनगरवीथीषु हृदयं
हरन्तौ श्रीरादाव्रजपतिकुमारौ सुकृतिनः।
अकस्मात् कौमारे प्रकटनवकैशोरविभवौ
प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादिनिरतौ।।
अर्थ- कहा कबहूँ मैं श्रीराधा और श्रीब्रजपति-कुमार कौ दरसन करि कैं पूर्णता कूँ प्राप्त होऊँगौ? जो काऊ समय व्रज-नगर की बीथी में खेलत फिरत एकांत पाय अचानक कुमार-अवस्था कूँ त्यागि कैं नव किसोरता के वैभव कूँ प्रगट करि दिव्य हास-परिहास मैं संलग्न है गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम के लिए सौं सुकृती-जनन के हृदय कौ अपहरन करि रहे हैं।
(दोहा)
समाजी-
एक समय भांडीर बट सुतहि लिएं नँद गोद ।
धेनु-निरीच्छन करन कौं पहुँचे अति मन मोद ।।
(श्लोक)
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै-
र्नक्तं भीरूरयं तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः ।।
(पद)
चकित भए नँदराय जानि यह सीतल-मंद बयार ।
श्रीराधा-अंग-कांति परत बन भयौ सकल उजियार ।।
कोटि चंद्र द्युति सम मुख झलकत, नील बसन सुभ अंग ।
कंचन कंकन हार मुद्रिका दुरे अंग के रंग ।।
भयौ प्रकास प्रथम दिसि, कैंधौं मिले काल यहि ठौर ।
कैसें पच्छिम छाँड़ि छिप्यौ रबि अब पूरब की ओर ।।
कैंधौं आज इंदु-मंडल में घिर्यौ मनिन कौ कोट ।
नंद-कुँवर कर ढाँपि नैन तब झाँकत अंगुरी ओट ।।
(कबित्त)
आजु यह भानु लली आई फूल बीनन कूँ,
देखि छबि कुँवरि बन मन सकुचायौ है ।
अंग की सुगंध ते फूल बिनु गंध भए,
मंद हँसनि देखि अरबिंद हू लजायौ है ।।
पट की फहरानि लखि समीर बिनु लहरि भई,
मुख कौ प्रकास दिस दस हू में छायौ है ।
किधौं आज मावस में उदय चंद पून्यौं भयौ,
किधौं निसि भूलि राह रबि-रथ आयौ है ।।
नंदरायजी- हैं! वृषभानु- कुँवरि? तू या समैं यहाँ कैसें आई? (स्वागत) हाँ, इन ही की अंग –प्रभा सौं ये प्रकास है रह्यौ हौ। ठीक! ये वेई राधा हैं! जब गर्गजी लीला कौ नाम-करन करिबे आए, तब उन नैं वृषभान-पुत्री की महिमा, राधा-तत्व की बात बताई हती। आज वोई रहस्य मेरे सन्मुख आयौ। देबी! मैं जानि गयौ पुरुषोत्तम श्रीहरि की तुम प्रानेस्वरी हौ मेरी गोद में तुम्हारे प्रानेस्वर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि बिराजमान हैं। लेऔ देबी! अपने प्रानेस्वर कूँ लै जाऔ! परंतु बड़े पुन्य प्रताप सौं यह आसारूप लता हरी भई है। सो यापै कृपा-बर्षा करती रहियौं, जासौं यह लता हरी बनी रहै। किंतु या समैं मैंनैं याकूँ पुत्ररूप में पायौ है, सो फिर मोही कूँ बगदाय कैं दै दीजौ।
(श्रीकृष्ण कूँ श्रीजी की गोद में दैनौं नंदराय खिरक में जायँ)
समाजी-
(दोहा)
कमल-पुंज के कर – कमल दीयौ कमल गहाय ।
बूड़ि कमल गये सिंधु में मिल्यौ कमल जब आय ।।
कमल-पुंज श्रीराधिका, कमलरूप घनस्याम ।
कमल-नैन, जलमय भए कमल नैन लखि बाम ।।
मार्ग में श्रीजी के हाथ सौं कृष्ण अन्तर्हित होयँ
श्रीजी- हैं! मेरे हाथ सौं वह बालक कहाँ गयौ? बाबा पूछैंगे, तब मैं उन कूँ कहा उत्तर दऊँगी?
लतान सौं निकसि कृष्ण बड़े रूप में श्रीजी कूँ दर्शन दैं
श्रीजी- तू-तू या समैं कौन, जो मेरी दृष्टि में आय रह्यौ है?
( शेष आगे के ब्लाग में )
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादिनिरतौ।।
अर्थ- कहा कबहूँ मैं श्रीराधा और श्रीब्रजपति-कुमार कौ दरसन करि कैं पूर्णता कूँ प्राप्त होऊँगौ? जो काऊ समय व्रज-नगर की बीथी में खेलत फिरत एकांत पाय अचानक कुमार-अवस्था कूँ त्यागि कैं नव किसोरता के वैभव कूँ प्रगट करि दिव्य हास-परिहास मैं संलग्न है गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम के लिए सौं सुकृती-जनन के हृदय कौ अपहरन करि रहे हैं।
(दोहा)
समाजी-
एक समय भांडीर बट सुतहि लिएं नँद गोद ।
धेनु-निरीच्छन करन कौं पहुँचे अति मन मोद ।।
(श्लोक)
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै-
र्नक्तं भीरूरयं तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः ।।
(पद)
चकित भए नँदराय जानि यह सीतल-मंद बयार ।
श्रीराधा-अंग-कांति परत बन भयौ सकल उजियार ।।
कोटि चंद्र द्युति सम मुख झलकत, नील बसन सुभ अंग ।
कंचन कंकन हार मुद्रिका दुरे अंग के रंग ।।
भयौ प्रकास प्रथम दिसि, कैंधौं मिले काल यहि ठौर ।
कैसें पच्छिम छाँड़ि छिप्यौ रबि अब पूरब की ओर ।।
कैंधौं आज इंदु-मंडल में घिर्यौ मनिन कौ कोट ।
नंद-कुँवर कर ढाँपि नैन तब झाँकत अंगुरी ओट ।।
(कबित्त)
आजु यह भानु लली आई फूल बीनन कूँ,
देखि छबि कुँवरि बन मन सकुचायौ है ।
अंग की सुगंध ते फूल बिनु गंध भए,
मंद हँसनि देखि अरबिंद हू लजायौ है ।।
पट की फहरानि लखि समीर बिनु लहरि भई,
मुख कौ प्रकास दिस दस हू में छायौ है ।
किधौं आज मावस में उदय चंद पून्यौं भयौ,
किधौं निसि भूलि राह रबि-रथ आयौ है ।।
नंदरायजी- हैं! वृषभानु- कुँवरि? तू या समैं यहाँ कैसें आई? (स्वागत) हाँ, इन ही की अंग –प्रभा सौं ये प्रकास है रह्यौ हौ। ठीक! ये वेई राधा हैं! जब गर्गजी लीला कौ नाम-करन करिबे आए, तब उन नैं वृषभान-पुत्री की महिमा, राधा-तत्व की बात बताई हती। आज वोई रहस्य मेरे सन्मुख आयौ। देबी! मैं जानि गयौ पुरुषोत्तम श्रीहरि की तुम प्रानेस्वरी हौ मेरी गोद में तुम्हारे प्रानेस्वर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि बिराजमान हैं। लेऔ देबी! अपने प्रानेस्वर कूँ लै जाऔ! परंतु बड़े पुन्य प्रताप सौं यह आसारूप लता हरी भई है। सो यापै कृपा-बर्षा करती रहियौं, जासौं यह लता हरी बनी रहै। किंतु या समैं मैंनैं याकूँ पुत्ररूप में पायौ है, सो फिर मोही कूँ बगदाय कैं दै दीजौ।
(श्रीकृष्ण कूँ श्रीजी की गोद में दैनौं नंदराय खिरक में जायँ)
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कमल-पुंज के कर – कमल दीयौ कमल गहाय ।
बूड़ि कमल गये सिंधु में मिल्यौ कमल जब आय ।।
कमल-पुंज श्रीराधिका, कमलरूप घनस्याम ।
कमल-नैन, जलमय भए कमल नैन लखि बाम ।।
मार्ग में श्रीजी के हाथ सौं कृष्ण अन्तर्हित होयँ
श्रीजी- हैं! मेरे हाथ सौं वह बालक कहाँ गयौ? बाबा पूछैंगे, तब मैं उन कूँ कहा उत्तर दऊँगी?
लतान सौं निकसि कृष्ण बड़े रूप में श्रीजी कूँ दर्शन दैं
श्रीजी- तू-तू या समैं कौन, जो मेरी दृष्टि में आय रह्यौ है?
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