🚩🔱 ❄ «ॐ»«ॐ»«ॐ» ❄ 🔱🚩
※══❖═══▩ஜ ۩۞۩ ஜ▩═══❖══※
🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
※❖ॐ∥▩∥श्री∥ஜ ۩۞۩ ஜ∥श्री∥▩∥ॐ❖※
🌹❄श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य❄🌹
🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :
( गत ब्लाग से आगे )
श्रीजी-
पद (राग देश, तीन ताल)
स्याम, सखि! नीकैं देखे नाहीं ।
चितवतहीं लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहीं ।।
कैसैंहूँ करि इकटक राखत नैंकहि में अकुलाहीं ।
निमिष मनौं छबि पर रखवारे ताते अतिहि डराहीं।।
कहाँ करूँ, इन कौ कहा दूषन, इन अपनी सी कीनी ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सब सोभा लीनी ।।
हाय-हाय! मेरे हृदय में तौ अग्निकुंड है, धक-धक करती अग्नि जरि रही है। परंतु मैं क्यों नहीं जरूँ हूँ? हाँ, स्याम-जलधर की वर्षा है रही है।
(वेणुनाद सौं चौंकि कैं)
हें, यह काहे की धुनि है?
सखी- प्यारी! यह बंसी ध्वनि है।
श्रीजी- हाय! बंसी-ध्वनि है कि अमृत निर्झर, सुधा प्रवाह?
(श्लोक)
नादः कदम्बविटपान्तरतो विसर्पन् को नाम कर्णपदवीमविशन्न जाने ।
अर्थ- ओह! यह कदंब बृच्छन सों जानें कैसी ध्वनि आई? यह मेरे कानन में प्रविष्ट है गई। हाय! कदाचित् या अमृत बरसायबेवारे के रूप कूँ देख लेंती।
सखी- अरी, बावरी सखी! यह तौं बंसी-धुनि हती ।
श्रीजी- तौ यह बंसी धुनि कौन की ही? चलि, वाकूँ देखें।
सखी- प्यारी जू! आप तौ न जानें कहा कहा कह रही हो! हमारी तौ समझ में कछू आवै नहीं है।
श्रीजी- हा! हा!! हा!!! सुनौंगी – सु – नौं-
(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धृतशिखिशिखण्डो नवयुवा ।।
अर्थ- महामरकत-द्युति अंग ते सोभा झर रही ही, माथे पै मोरपंख सोभा दै रहौ हौ। नव-किसोर स्यामघन-
सखी- किसोरी! तुम ने सुपनौं तो नही देख्यौ?
श्रीजी- स्वप्न या जागरन, दिन अथवा रात्रि-यह मैं नहीं जान सकी। जानिबे की शक्ति कहाँ रही? वा स्याम ज्योति में सागर लहराय रह्यौ हौ; वह लहर मोहूँ कूँ बहाय लै गई। नाचती भई चंचल लहर में मैं हूँ चंचल है उठी, फिर जानिबे कौ समै ही कहाँ मिल्यौ।
( शेष आगे के ब्लाग में )
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🌹۞☀∥ राधेकृष्ण: शरणम् ∥☀۞🌹
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🌹: कृष्णा : श्री राधा प्रेमी : 🌹
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कहाँ करूँ, इन कौ कहा दूषन, इन अपनी सी कीनी ।
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हाय-हाय! मेरे हृदय में तौ अग्निकुंड है, धक-धक करती अग्नि जरि रही है। परंतु मैं क्यों नहीं जरूँ हूँ? हाँ, स्याम-जलधर की वर्षा है रही है।
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श्रीजी- तौ यह बंसी धुनि कौन की ही? चलि, वाकूँ देखें।
सखी- प्यारी जू! आप तौ न जानें कहा कहा कह रही हो! हमारी तौ समझ में कछू आवै नहीं है।
श्रीजी- हा! हा!! हा!!! सुनौंगी – सु – नौं-
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वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धृतशिखिशिखण्डो नवयुवा ।।
अर्थ- महामरकत-द्युति अंग ते सोभा झर रही ही, माथे पै मोरपंख सोभा दै रहौ हौ। नव-किसोर स्यामघन-
सखी- किसोरी! तुम ने सुपनौं तो नही देख्यौ?
श्रीजी- स्वप्न या जागरन, दिन अथवा रात्रि-यह मैं नहीं जान सकी। जानिबे की शक्ति कहाँ रही? वा स्याम ज्योति में सागर लहराय रह्यौ हौ; वह लहर मोहूँ कूँ बहाय लै गई। नाचती भई चंचल लहर में मैं हूँ चंचल है उठी, फिर जानिबे कौ समै ही कहाँ मिल्यौ।
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