शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

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  🌹🌟 राधे नाम संग हरि बोल 🌟🌹
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🌹❄ *श्री राधाकृष्ण लीलामाधुर्य* ❄🌹

🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

श्रीकृष्ण -

(पद)

धीरज रहत नहिं प्रेम-मग पग धरि।
आदि अंत जाकौ न बतायौ कोउ,
थकित रहत मन-बुधि बिधि-हर-हरि।।
बार-बार मैं हूँ बिचार करि देखूँ नित,
भूलि जात गेहु, नीर आवत दृगन भरि।
प्रेमी प्रेम पात्र सूर गायौ है अभेद भेद,
डरत न काहू सौं सेवक ज्यौं नरहरि।।

(पद)

अति ही कठिन है निगम पथ चलिबौ।
कठिन सौं कठिन जगत रीत देखियत,
गुरुजन-डर नित हिय में उछलिबौ।।
प्रेम पंथ ग्रंथन में गायौ है अनेक भाँति,
आवत न अंत निज पिय कौ मचलिबौ।
प्रीत जो सनातन, ताहि जानत ना ओछौ मन,
सूर कहा जानै ताहि बिना नैन मिलिबौ।।

श्रीजी- सखी, कहा ये ही हैं स्यामसुंदर?

सखी- हाँ, प्यारी! ये ही हैं। अब नैन भरि देखि लेऔ!

श्रीजी-

(पद)

कृष्ण मन-मोहन नैन बिसाल।
बंक मनोहर चितवनि चितवत, बन ते आवत लाल।।
सुंदर अमल कमल-दल सोहत मुसिकन मंद रसाल।
हरिबल्लभ किमि रूप कहौं सखि, मोहन मदन गुपाल।।

पद (रांग-नूर सारंग, तीन ताल)

अँखियन याही टेव परी।
कहा करूँ बारिज मुख ऊपर लागत ज्यौं भँवरी।।
हरखि-हरखि प्रीतम मुख निरखत, रहत न एक घरी।
ज्यौं-ज्यौं राखत जतनन करि-करि, त्यौं-त्यौं होत खरी।।
गड़ि मरि रहीं रूप-जलनिधि में प्रेम-पियूष भरी।
सूरदास गिरिधर नग परसत लूटत निधि सगरी।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

(श्लोक)

हे देव! हे दयित! हे भुवनैकबन्धो!
हे कृष्ण! हे चपल! हे करुणैकसिन्धो!
हे नाथ! हे रमण! हे नयनाभिराम!
हा हा कदानुभवितासि पदं दृशोर्मे।।

सखि- हे सखी! अब नँदनँदन कौ बन सौं आयबे कौ समय निकट ही आय गयौ है। सो अब प्यारी जी कूँ सीस-महल के झरोखान में विराजमान कर देऔ, वहीं सौं ये प्यारे के दरसन करि लेयँगी और या बात की काहूँ कूँ खबर हू न परैगी।

(श्रीकृष्ण-मधुमंगल-आगमन)

समाजी-

पद (राग पूरिया, ताल-चौताल)

हाँकें हटक-हटक गाय ठठक-ठठक रहीं,
गोकुल की गली सब साँकरी।
जारी-अटारी, झरोखन मोखन झाँकत,
दुरि-दुरि ठौर-ठौर ते परत काँकरी।।
कुंद कली चंप-कली बरषत रस-भरी,
तामें पुनि देखियत लिखे हैं आँक री।
नंददास प्रभु जहीं-जहीं द्वारें ठाड़े होत,
तहीं-तहीं माँगत बचन लटकि-लटकि जात,
काहू सौं हाँ करी, काहू सौं ना करी।।

पद (राग-गौरी, तीन ताल)

कमल मुख सोभित सुंदर बेनु।
मोहन ताल बजावत, गावत, आवत चारें धेनु।।
कुंचित केस सुदेस बदन पर, जनु साज्यौ अलि सैनु।
सहि न सकत मुरली मधु पीवत, चाहते अपने ऐनु।।
भृकुटी कुटिल चाप कर लीने, भयौ सहायक मैनु।
सूरदास प्रभु अधर-सुधा लगि उपज्यौ कठिन कुचैनु।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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रविवार, 25 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीगोपदेवी-लीला :

श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।

श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-

(श्लोक)

वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।
अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।
सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?

श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।

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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

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श्रीजी- ‘हे सखि, गुरुणापि प्राधानेन न मे स्मरणं भवति’- हे श्यामे, मैं तो चित्त कूँ स्थिर करि कैं बोहौत विचार करूँ हूँ, परंतु मोकूँ नैंक हू स्मरण नहीं होय है। आप ही बताय देऔ, मोसौं ऐसी कहा भारी चूक परि गई है।

श्रीजी- ‘अयि मिथ्यासरले, तिष्ठ तिष्ठ’-

(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निपक्रान्तोऽभूद् धृतशिखिशिखिण्डो नवयुवा।
भ्रुवं तेनाक्षिप्ता किमपि वसतोन्मादितमतेः
शशीवृत्तो वह्निः परमहह बर्ह्निमय शशी।।

अयि निठुर चित्रै, तैंने ही तो चित्रपट दिखराय कैं मेरी यह गति कर दीनी है।

सखी- क्यौं, प्यारी जू! वा चित्रपट में कहा हौ?

श्रीजी- अरी कपटवादिनी, वह चित्रपट नहीं हौ वा पट में तो एक युवा पुरुष बैठ्यौ हौ। स्याम वा कौ वर्ण हौ। मरकत मणि की सी मनोहर अंग कान्ति ही। मस्तक पै मोरपिच्छ कौ गुच्छ सौभा दै रह्यौ हौ। कंठ सौं पाद पर्यन्त बनमाला लहराय रही ही। वह नवघन-किसोर चित कौ चोर धीरें-धीरें वा पट कूँ तजि निकस्यौ और निकसि कैं मो माऊँ मदमातौ मुस्कावतौ आवन लग्यौ। मैंने लज्जा और भय के मारें नेत्र मूँद लीने; परंतु देखूँ तो वह तो मेरे हृदय में ठाड़ौ-ठाड़ौ मुस्काय रह्यौ है। वह मेरे नयन द्वार सौं मेरे हृदय भवन में घुसि आयौ है और वाने मेरौ मन-मानिक चुराय मोकूँ बावरी कर दियौ है। मोकूँ तब सौं ससि-किरन तौ अग्नि की ज्वाला समान लगै है और अग्नि की ज्वाला ससि-किरन तुल्य लगै है।

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पद (राग आसावरी, तीन ताल)

बात हिलग की कासौं कहियै।
सुन री सखी बिबस्था तन की,
समुझि-समुझि मन चुप करि रहियै।
मरमी बिना मरम को जाने,
यह उपहास जानि जिय सहियै।
चत्रभुज प्रभु गिरिधरन मिलैं जब,
तबहीं सब सुख संपत्ति लहियै।।

सखी- हे प्यारी! कछू तो कहौ, स्वजनन के समीप गोपन करिबे तैं मंगल नहीं होय है।

श्रीजी- ‘अयि निष्ठुरे चित्रलेखे, त्वमेव पृच्छस्यपि नः?’ – अरी निष्ठुर, और तो बूझैं हैं सों बूझैं हैं; तू हू मोते बूझै है?

सखी- ‘हे राधे, कर्हिचिदपराद्धस्मीति न स्मरामि’- हे किशोरी जू, मोते कबहुँ अपराध बनि गयो है- सो तो मोकूँ स्मरण नहीं है।

श्रीजी- ‘अयि निष्कृपे, कस्मादेवं भण्सि, स्मृत्वा पश्य’- अरी क्रूर चित्रे, तू ऐसी बोलन काहे कूँ बोलै है- नैंक स्मरण करिकैं देख।

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बुधवार, 21 सितंबर 2016

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पद (राग आसावरी ताल, चौताल)
कृष्न नाम जब ते मैं स्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन मैं तौ बावरी भई।
भरि-भरि आवत नैन, चितहू न परत चैन,
मुखहू न फुरत बैन, तन की दसा कछु औरही भई।
जेतेक नेम-धरम कीने मैं बहुत बिधि,
अंग अंग भई हौं तौ स्रवन मई।
नंददास प्रभु जाके स्रवन सुनें यह गति भई,
माधुरी मूरति कैधों कैसी दई।।

(दोहा)
प्रानन ते प्यारी अहो सखियौ! तुम सुनि लेहु।
जानौ तुम बरनन करौ, चित्र तासु लिखि देहु।।
सुन्यौ हमहुँ कछु नंदसुत अति मन हर तन श्याम।
चित्र देखि मैं परखिहौं जाहि सराहत बाम।।

श्रीजी- हे मेरी मन भावती सखियौ! जिन कौ तुम बरनन करि रही हौ, उन रूप-सागर कौ एक चित्र तौ मोकूँ दिखाऔ।
ललिता- हे प्रिय चित्रे! तुम या कला में परम निपुन हौ, सो स्याम सुंदर कौ एक सुंदर चित्र लिखि कैं प्यारी कूँ दरसन कराऔ।
चित्रा- हाँ, अब ही लाऊँ।

(श्रीकृष्ण कौ चित्र श्रीजीकूँ दिखावैं)
सखी- हैं सखी! प्यारी कूँ ये कहा भयौ, ये तौ चित्र देखि चित्रलिखी सी रहि गईं। अबही ते प्रेम के प्रबाह में कहा लोकलाज बहि गई? अपनो चित्त प्यारे के अरपन करि कहा बेचैन है गई? किसोरी प्यारी, चित्र कूँ देखि कैं यह आपकी कहा गति भई? ने तो खोलौ, कछू मोते बोलौ तो सही।

श्रीजी- सखी, कछू बात नायँ। मोकूँ नींद आवै है सो सोयबौ चाहूँ हूँ।
(श्रीजी कूँ सयन कराय दै हैं)

श्रीजी- (सयन-अवस्था में) प्यारे, या सुंदर मुखारबिंद पै बलिहारी जाऊँ ये मुख सुंदरता की रासि है।

(श्लोक)
मधुरं मधुरं वपुरस्य विभोर्मधुरं मधुरं वदनं मधुरम्।
मृदुगन्धि मृदुस्मितमेतदहो मधुरं मधुरं मधुरं मधुरम्।।

भावार्थ- अहा मेरे मोहन चित-चोर! तुम्हारौ समस्त श्रीअंग कितनौ मधुर है-मधुर है! ता पै जो मुख-कमल है, सो तौ मधुर है, मधुर है, मधुर है। और ता मुख-कमल पै जो सुगंधित भीनी हँसन है, सो तो हाय, हाय, मधुर है, मधुर है, मधुर है, मधुर है। मधुरातिमधुर है। अहा, कहा यह माधुर्य की रासि है कि साच्छात् मेरे प्रान ही हैं? जो मेरे ही प्रान हैं तो मोते दूर कहाँ जाय रहे हौ? नैंक तो ठहरो, कहा चले ही जाओगे? अच्छौ, जाऔ चले जाऔ, मैं आप ही पतौ लगाय लऊँगी। (चौंकि कै उठनौ-इन-उत कूँ देखनौ)

सखी- हे प्यारी जू! कहा भयौ, आप इत-उत कूँ क्यौं देखि रही हौ? कहा कोउ बस्तु खोय गई है?

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सोमवार, 19 सितंबर 2016

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(सवैया)

मोतिन की सुथरी दुलरी बर, सोहत सुंदर सीस टिपारौ ।
आनन पानन रंग रच्यौ, निरखैं चखि चंचल लोचन तारौ ।।
गोकुल गाँव गली बिहरैं लिएं कंजकली कर रूप उज्यारौ।
गुच्छन के अवतंस लसैं सिखिपिच्छन अच्छ किरीट बनायौ।
पल्लव लाल समेत छरी कर-पल्लव में मतिराम सुहायौ।।
गुंजन के उर मंजुल हार निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयौ।
आज कौ रूप निहारि, सखी! हम आजहि आँखिन कौ फल पायौ।।

(राग भैरव, ताल चौताल)

ऐसे गोपाल निरखि तिल-तिल तन वारौं।
नवकिसोर मधुर मुरति सोभा उर धारौं।।
अरुन तरुन कंज नयन, मुरली कर राजै।
ब्रजजन-मन-हरन बैनु मधुर-मधुर बाजै।।
ललित बर त्रिभंग सु-तन बनमाला सोहै।
अति सुदेस कुसुम-पाग उपमा कौं को है।।
चरन रुनित नूपुर, कटि किंकिनि कल कूजै।
मकराकृति कुंडल छबि सूर कौन पूजै।।

 (श्लोक)

तत्कैशोरं तच्च वक्त्रारविन्दं तत्कारुण्यं ते च लीलाकटाक्षाः।
तत्सौन्दर्यत सा च मन्दस्मितश्रीः सत्यं सत्यं दुर्लभं दैवतेषु।।

अर्थ- अरी सखी, नटनागर बिहारी श्रीकृष्णचंद्र की वह नवकिसोर-अवस्था, वह मुखारबिन्द, वह करुणा, वे लीलाकटाच्छ, वह सौंदर्य, वह मुसकान-माधुरी देवतान में हू दुर्लभ है।

(पर्दा में)

श्रीजी- अहाहा! यह मधुर नाम मोय कौन नें सुनायौ? कितनो मधुर है? कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण!

(श्लोक)

तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावलीलब्धये
कर्णक्रोडकडम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम्।
चेतःप्रांगणसंगिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं
नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्णद्वयी।।

भावार्थ- ‘कृष्ण’- ये द्वै अच्छर जिह्वा बोल है तौ अनन्त जिह्वान की आकांक्षा उदय करावै हैं। ‘कृष्ण’- ये द्वै वर्ण कर्णन में प्रबेस करत ही दस कोटि कर्णन की लालसा करावै हैं। ‘कृष्ण’- ये द्वै अच्छर अंतःकरण में प्रकट होत ही समस्त इंद्रियन की चेष्टान पै विजय करि कैं चित्त कूँ तन्मय करि देय हैं। न जें बिधाता नें कितेक अमृत के पूर सौं ये द्वै अच्छर ‘कृष्ण’ की रचना करी है। अहा! कृष्ण, कृष्ण, कृष्ण।

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रविवार, 18 सितंबर 2016

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मंगलाचरण

(श्लोक)

या वाऽऽराधयति प्रियं व्रजमणिं प्रौढानुरागोत्सवैः
संसिद्धयन्ति यदाश्रयेण हि परं गोविन्दसख्योत्सुकाः।
यत्सिद्धिः परमा पदैकरसवत्याराधनात्ते नु सा
श्रीराधा श्रुतिमौलिशेखरलतानाम्नी मम प्रीयताम्।।

अर्थ- जा प्रकार ब्रजमनि प्रियतम उनकौ आराधन करैं हैं, वाही प्रकार वेहू प्रकृष्ट अनुराग के उल्लास सौं परिपूर्ण है कैं अपने प्रियतम कौ आराधन करें हैं। गोबिंद के संग सख्य-भाव-प्राप्ति के ताईं उत्सुक जन हू जिन के आश्रय सौं आराधना करि कैं परम-सिद्धि कूँ प्राप्त होयँ हैं, जिन की सर्वोच्च उपलब्धि परमसाध्यरूपा अद्वितीय रसमयी स्थिति है, वे ही श्रीराधानाम्नी श्रुति-मौलि-शेखर-लता मोपै प्रसन्न होयँ।

सखी- अरी सखी, आज तैनें प्रातःकाल स्यामसुंदर के दरसन करे हे; कैसौ सुंदर सिंगार हौ?

दूसरी सखी- हाँ, सखी! दरसन तो करे हे। मैं तौ वा मनमोहिनी मूर्ति के दरसन करि कैं एकटक चित्र-लिखी सी रहि कई। स्याम तन पै पीताम्बर कैसी सौभा पाय रह्यौ हौ! हम सब ब्रजजुबतिन के मनन कूँ मोहि रह्यौ हौ। बलदार अलकावली गुरुजनन की लाज कूँ हटाय रही ही।

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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

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🌹 श्रीकृष्णप्रवचनगोपी-प्रेम :

 (दोहा)

तीन लोक चौदह भुवन प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
पर- जगमग ह्वै रह्यौ रूप सौं श्रीबृंदाबन माँहि ।।
और ढूँढ़ि फिरैं त्रैलोक जो, मिलत कहूँ हरि नाहिं।
पर- प्रेमरूप दोउ एकरस बसत निकुंजन माँहि।।

हम दोऊ स्वरूप प्रेम-निकुंज के देवता हैं, और ये गोपी हमारी पुजारिन है, प्रेम की आद्याचार्य हैं। प्रेम-संप्रदाय गोपिन ते ही चल्यौ है, प्रेम की पद्धति इननें ही चलाई, और प्रेम कौ स्वरूप इननें हीं जगत कूँ दरसायौ है। यदि ये गोपी नहीं होतीं, तौ, प्रेम-शब्द ग्रंथन में हीं रहि जातौ। श्रीनारदजी ‘यथा व्रजगोपिकानाम्’ कहि कैं अपने ग्रंथ ‘भक्तिसूत्र’ में कौन कौ दृष्टान्त देते। और जो गोपी न होतीं तौ स्वयं मेरौ जो बाक्य- ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरण ब्रज’ है, याकौ स्वरूप प्रत्यक्ष करि कौन दरसावतौ। अजी, गोपी न होतीं तौ मेरी माखन-चोरी-लीला, पनघट-लीला, दान-लीला, मान-लीला, होरी-लीला, बंसी-लीला और रास-लीला नहीं होतीं। रसिकजन लुटि जाते, और स्वयं मैं हूँ पूरे ते आधौ रहि जातौ-पूर्णतम् स्वरूप ते न्यूनतम रहि जातौ! और यदि गोपी न होतीं तौ भक्ति जुबती ते फेर वृद्धा है जाती। श्रीनारदजी नें भक्ति सौं कही ही-

वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च।।

अर्थ- हे भक्तिदेवी! तुम बृंदाबन के संयोग ते फिर जुबती है गई हैं; याते ते बृन्दाबन धन्य है, जहाँ भक्ति नृत्य करै है। यह भक्ति गोपी-कृष्ण-लीला कूँ गाय-गाय कैं नृत्य करै है। यदि गोपी न होतीं तो मैं कौन के संग लीला करतौ, और भक्ति कहा गाय कैं नृत्य करती, बिचारी रोय-रोय कैं आप ही बूढ़ी है जाती। या प्रकार ये ब्रजगोपी मेरी ब्रज-लीला की आधार-स्वरूपा हैं, तथा स्वयं मेरी प्राण-जीवन-स्वरूपा हैं। याही सौं प्रेम-मंदिर में इनकौ स्थान सर्वोपरि है- गोपी प्रेम की धुजा हैं।

(दोहा)

जदपि जसोदा नंद अरु ग्वालबाल सब धन्य।
पै या जग में प्रेम की गोपी भईं अनन्य।।
भक्त जगत में बहुत हैं, तिन कौ नाहिं प्रमान।
हौं गोपिन के हिय बसौं, गोपी मेरे प्रान।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 12 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌟 श्रीकृष्णप्रवचनगोपी-प्रेम :

(पद)

गोपी प्रेम की धुजा ।
जिन गोपाल किये बस अपने, उर धरि स्याम भुजा।।
सुक मुनि ब्यास प्रसंसा कीनी, उद्धव संत सराहीं।
भूरि भाग गोकुल की बनिता अति पुनीत भव माँहीं।

(दोहा)

ब्रज-गोपिन के प्रेम की बँधी धुजा अति दूर ।
ब्रह्मादिक बांछत रहैं इन के पद की धूर ।।

अहाहा! देखौ, ये गोपी प्रेम-मंदिर की धुजा हैं। मंदिर में बिसेष ऊँचौ स्थान सिखर कौ होय है। सिखर के ऊपर कलसा होय है, कलसा के ऊपर चक्र होय है, चक्र के ऊपर धुजा होय है; परंतु धुजा के ऊपर कछु नहीं होय है। वो धुजा लहराय-फहराय कैं दूर ही ते कहैं है- ‘एरे पथिकौ, यह मंदिर है; यहाँ आऔ और श्रीहरि के दरसन करि नैन-मन सिराऔ, पाप नसाऔ और पुण्य कमाऔ। ऐसैं ही वे गोपी प्रेम-मंदिर की धुजा स्थान पै बिराजमान है कैं पुकारि-पुकारि कैं कहि रही हैं- ‘एरे संसार के जीवौ, यह ब्रज है, यहाँ आऔ। यह प्रेमकौ मंदिर है। प्रेम के देवी देवता श्री जुगलस्वरूप के दरसन करौ। प्रेम की ठाकुर यहीं है, प्रेम की उपासना यहीं है और प्रेम की सामग्री हू यहीं है। यातैं या प्रेमधाम में आऔ। यदि तुम्हारौ हृदय कारौ है तो यहाँ के कारे-गोरे रंग सौं ऊजरौ करि लेउ। और जो तुम्हारी धारना मैली है तौ यहाँ प्रेम की जमुनाधार ते पबित्र करि लेऔ । जो रुकि गई है तौ बहाय लेऔ। और सूखि गई है तौ सरसाय लेऔ। या श्रीवृंदाबन में प्रेम नदी चारों ओर बहि रही है, तुम यामें गीता लगाय कै पाप-ताप ते रहित है जाऔ! गोपी टेरि-टेरि कैं कह रही हैं-

( शेष आगे के ब्लाग में )

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रविवार, 11 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

पद (रास सारंग बृंदाबनी, ताल चौताल)

बैठे हरि राधा संग कुंज भवन अपने रंग,
कर मुरली अधर धरें सारँग मुख गाई ।
मोहन अति हो सुजान, परम चतुर गुन-निधान,
जानि-बूझि एक तान चूकि कैं बजाई ।।
प्यारी जब गह्यौ बीन, सकल कला-गुन प्रबीन,
अति नबीन रूप सहित तान वह सुनाई।
बल्लभ गिरिधरन लाल रीझि दई अंक माल,
कहत भलैं जु सुंदर सुखदाई ।।
दोनौं कुंज भवन में बिराजै हैं।

 प्रीतम नें मुरली में सारंग राग कौ अलाप लीनौं, तामें एक तान जानि-बूझि कैं असुद्ध बजाई। ताकूँ सुनि कैं स्वामिनी जी ने बीन में वाही तान कूँ अद्भुत ढंग सौं प्रीतम कूँ सुनाई। तब प्रीतम नें बौहौत ही बड़ाई कीनी और प्रिया कौं आलिंगनरूप उपहार दीनौ।

सखी-

पद (राग नूरसारंग, ताल मूल)

चलौ किन देखन कुंज कुटी।
मदन गुपाल जहाँ मधि नाइक मनमथ फौज लुटी ।।
सुरत-समर में लरत सखी की मुक्ता-माल टुटी।
परमानँद गोबिंद ग्वालिनि की नीकी जोट जुटी।।

समाजी-

(कवित्त)

जेते द्रुम कुंजनि, कलप-बृच्छ ये प्रतिच्छ,
दोउन कौं बाँछित दई हैं निधि भलियाँ।
स्यामा-स्याम करैं केलि आनँद अलोल मत्त,
बेल नए नेह की अछेह फूल-फलियाँ।।
दंपति कौ सुख, सोई संपति है नैनन की,
नागरिया देखि-देखि जीवत हैं अलियाँ।
नैंक दिन-राति के बिहात की न जानी जात,
बंदाबन होत नित नई रंग-रलियाँ।।
बंदाबन आँनद बिहार चारू दंपति के,
ताकी दिन-रात बात सो सुनि जियौ करौ।
ललित हिंडोरा, साँझी, रास-रंग, दीपमाला,
फूलनि की कुंज रुचि रचना कियौ करौ।।
नित ही बसंत यहाँ, होरी चित चोरी चाव,
नागरिया केलि ये सकेलि कैं लियौ करौ।
दियौ करौ येई अरु येई सुख लियौ करौ,
येई दिन-रैन रस रसिक पियौ करौ।।

🌟🌟 श्री साँझी लीला संपूर्ण 🌟🌟

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(ठाकुरजी, दोऊ हाथन की अँजुरी बाँधि श्रीजी सौं रखवारी माँगैं)

समाजी-

(कबित्त)

साहस सँभारि स्याम आगैं आए प्यारी जू के,
रूप कौ अतुल भार परत न सह्यौ है।
बीच नील अंबर के बदन मयंक लखि,
चकित चितौन नें चकोर बृत्ति लह्यौ है।।
पायँ डुगलात जात, पीत पट छूटि गयौ,
नागरिया परत हियें धीरज न गह्यौ है।
पगे रूप चैननि में बैन न फुरत मन,
लियौ चाहैं हाथ मन, हाथ में न रह्यौ है।।
फूलन कौं गईं उत सखी सब जहाँ-तहाँ,
इत कौं रँगीले कछू और ढार में ढरे ।
रसिक रसाल बाल दियौ चाहै उर माल,
तब नन्दलाल हँसि आगैं हाथ लै करे।।
उरझी चितौन, कंप, स्वेद, स्वर भंग भए,
नागरिया नागर अनंग-रंग सौं भरे।
राधे जू दियौ हार मोतिन कौ मोहन कौं,
मोहन जू हार होय राधे के गरैं परे।।

(श्रीजी प्रीतम कूँ मोतिन कौ हार पहिरावैं, दोनों मिलि कैं कुंज में पधारे)

समाजी-

पद (राग केदारौ, ताल धमार)

रस भरे पिय-प्यारी बैठे कुसुम भवन ।
कुसुमन की सेज, और कुसुम बितान तने,
तैसोई सीत-मंद-संगध पवन ।।
कुसुमन के आभूषन, कुसुमन के परदा, कुसुमन केबीजना,
गुंजत अलि, पिक री सुख स्रवन।
गोबिंद बलि-बलि जोरी सदाईं बिराजौ,
सुख बरषत लालन राधिका-रवन।।

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गुरुवार, 8 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण-

(कबित्त)

हमहू हैं राधे जू के, हमैं अपनाय लेऔ,
ज्यौंब मुख-सुधाधर देखि-देखि जीजियै।
निकट बुलाय मोहि, दामन लगाय राखौ,
सखी हौ कुँवरि जू की, खुनस न कीजियै।
हारे तुम आगें, बन-द्रुम हैं तिहारे अब,
नागरिया दोऊ ओर रसघन भीजियै।
नीकें सनमान कछु करि रखवारन कौ,
पाछें बहु फूलनि सौं फूलन कौं लीजियै।।

अरी, हमहूँ तौ श्रीराधेजू के ही हैं। नैंक हमैं हू अपनाय लेऔ, जासौ हमहूँ इनको मुखचंद देखि-देखि कैं जियौ करैं। मोय अपने ढिंग बुलाय कैं अपने आँचल कौ छोर पकराय अपनौ आस्त्रित बनाय कै कूं राखौ। तुम तौ श्रीराधा कुँवरि की प्यारी सहचरी हौ, यातें मेरे प्रति मन में नैंक हू खुनस मत रखौ। अब हम तिहारे आगें हारि गए, यहाँ की सब वस्तु तिहारी ही है; परंतु नैंक दया करि हमारौ हू ध्यान राखौ। हम याकी रखवारी करैं हैं, यासौं कछू हमारौ हू सनमान कर्यौ चहिए। वैसैं तौ सब बस्तु आपकी ही हैं। जो चहियै, सोई लै जाऔ।

सखी-

(कबित्त)

फूल हैं हमारे, हम लैहिंगी पै, तुम्हैं कहा,
ऐपै ऐसौ टोकिवौ न कीजै, बलिहारी जू।
दीनता करत ब्रजराज के कुँवर! अब,
पहिलैं जे बातैं कहीं, ते सब बिसारीं जू।।
नीकें रहौ नागर, बिमन न होउ ताते,
ह्वै कैं निसंक दिसि आइयै हमारी जू।
बन के बिहारी, लीजै द्रुम रखवारी, वारी,
त्ह्यारी मनुहारन सौं हमारी प्यारी हारी जू।।

अजी बनमाली जी! ये फूल-फल तौ हमारे ही हैं; हम लेयँ, चाहैं न लेयँ। आज सौं पाछैं हमकूँ ऐसैं कबहू मत टोकियो। पहिलैं तौ आप बड़े बढ़ि-बढ़ि कैं बोलि रहे हे, अब वे बातैं सब छोड़ि दई; जब कछू बस न चल्यौ, तब दीनता करिबे लगे। अच्छौ, कोई बात नायँ; “जब जागे, तबहि सवेरौ।” अब आप उदास मत होउ, हमारी स्वामिनी जी बाग की रखवारी में आप कूँ जो कछु दैं, सोई लै लेओ।

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सोमवार, 5 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण-

(कबित्त)
हमहीं कौं चिंता या बन की रहत नित,
नित रखवारे रहैं, लाग्यौ चित चेतु है।
हम आठौं जाम सेवैं काम नृप धाम यह,
सहैं घन घाम अति, ताते हिय हेतु है।।
हमहीं सौं गहबर हर्यौ व्है रह्यौ है महा,
नागरिया प्यारौ मीनकेत-रस-खेतु है।
हमहीं कौं दैकैं लैनौं है सु लेहु, यौं
पराए फल-फूलनि कौं कौन लैन देतु है।।

सखी! या बन की चिंता तौ हमकूँ ही रहै हैं। हम याकी रखवारी करैं हैं, याकूँ सींचै है, धूप सहैं, जाड़ौ सहैं, तब ही तौ यह ऐसौ हर्यौ-भर्यौ दीख रह्यौ है। हाँ, तुमकूँ कछू फूल-फल लैनौं होय तौ हमें कछु रखवारी दैकैं तब लेऔ। ऐसैं तौ भलौ पराए फल-फूलनकूँ कौन लैन देयगौ।

 सखी-

(कबित्त)
कहा है परायौ, सब दीखत है राधेजू कौ,
बिना ही बिचारें झूँठे बचन क्यौं उचारे जू।
राधे ही की भूमि, खग-मृग सब राधे जू के,
राधे ही कौ नाम रटैं साँझ औ सकारें जू ।।
राधे ही के सुरबर ये तरुबर राधे ही के,
राधे ही के फूल-फल नागर निहारे जू ।
राधे ही कौ बृंदाबन, राधे की दुहाई फिरै,
तुम कौन लाला! हमैं हटकन हारे जू ।।

अजी! कहा परायौ-परायौ कह रहे हौ? यहाँ की जितनी बस्तु है, सब हमारी प्यारी राधेजी की है। देखौ, यहाँ की भूमि राधेजी की, ये खग-मृग सब राधेजी के, और ये दिन रात राधेजी कौ ही नाम रटैं हैं। यहाँ के सरोबर, यहाँ के सब बृच्छ, यहाँ के फूल और फल सब राधेजी के हैं। यह बृंदाबन हू राधे ही कौ है, और यहाँ दुहाई हू श्रीराधेजी की ही फिरै है। आप बिना ही बिचारें ऐसी झूठी बात कहि रहे हौ। आप हौ कौन, जो हमैं रोकि हौ?

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शनिवार, 3 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

सखी-

हँसि ललिता तब कह्यौ स्याम सौं, ये बृषभान-दुलारी ।
तिहारौ कहा लगै या बन में, रोकत गैल हमारी ।।2।।

श्रीकृष्ण-

स्याम सखा सखियन समुझावैं, हठ न करौ तुम प्यारी ।
फल-द्रुम, बन-बाटिका-सबनि के हमहीं हैं रखवारी ।।3।।

(कबित्त)

ऐसे या सघन बन निरजन के माँहि मैं,
आवती हू जानी नाहिं, जानी जब गाई हौ।
और है न संग कोऊ, एक-जाति जुबती सब,
बिनहीं बिचारैं जोर जोबन के धाई हौ ।।
अब फिरि जाहु आप-आपने भवन सब,
ठौर सु इकौसी फिरौ मदन-दुहाई हौ।
कैधौं तुम नागरी! हमैं समुझाय कहौ,
कौन की पठाई यहाँ, कौन काज आई हौ।।

अरी! तुम कौन हौ? कहाँ सौं आई हौ? मोय तिहारे आयवे की खबरहू नायँ परी, तिहारे संग पुरुषहू नायँ है, तुमकूँ यहाँ कौन नें भेज्यौ है और कहा आज सौं या निरजन बन में आई हौ?

सखी-

फूलन के बीनिबे कूँ आईं इहिं बन मिलि,
बूझिबे की हियें ऐसी धरनि व क्यौं धरी ।
टेढ़े ह्वै कैं ठाड़े, छली छैल! रोपि कैं छरी ।।
उचित नहीं, यहाँ अकेले रहौ जुबतिन में,
नागर! निकसि जाहु याही साँकरी गरी।
नाँ तौ अनबोले रहौ, छाँड़ौ मग मेरौ, हम
आबैंगी हजार बेर, तुम कौं कहाँ परी ।।

अजी! हम फूल बीनिबे कूँ आई हैं, आप हमें टोकिवे वारे को हौ? आपकी टेढ़ी चितवनि है, और टेढ़ी बात करौ हौ। और छरी हाथ में लैकैं टेढ़े हैंकै हमारी गैल रोकि कैं ठाड़े हौ। सखीन के बीच में रहनौ आपकूँ उचित नायँ है; यदि यहाँ रहनौ ही होय तौ चुपचाप ठाड़े रहौ। हम यहाँ हजार बार आवैंगी। तुमकूँ कहा परी या बात ते?

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

सखी- वाकौ नाम कहा हौ?

श्रीजी- सखी! वाकौ नाम तौ मैं नायँ जानूँ; परंतु, हाँ, वाको स्याम तौ रंग हौ और वानें पीरे-पीरे वस्त्र पहरि राखे हे।

सखी- अरी, होयगौ कोई माली। अब बौहौत अबेर है गई, घर पधारौ।

श्रीजी- नायँ, एक बेर वाही कुंज में मोकूँ फिर लै चल।

सखी- प्यारी! काऊ माली सौं बिना हीं बात लरनौ परैगौ, घर चलौ ।

श्रीजी- नायँ सखी! मैं एक बेर तौ वहाँ जाऊँगी ही।

सखी- अच्छौ, नायँ मानौ तौ चलौ।

(सब सखी, श्रीजी फूल बीनती मालती-कुंज की ओर पधारैं)

समाजी-

ख्याल (राग बसंत, ताल द्रुत एकताल)

फुलवा बिनत डार-डार गोकुल की सुकुँवारि,
चंद-बदनि कमल-नैनि भानु की लली ।
एरी ए सुघर नारि, चलत न अंचल सम्हारि,
आवैंगे नंदलाल, देखि कैं डरी ।।

श्रीकृष्ण-

साँझी-फूल लैन, सुख दैन मन-नैननि कौं
स्यामा जू साथ जूथ जुबतिन के धाए हैं।
चलत अधिक छबि छाजत छबीलिनि के
रँगीले अंग-अंग रंग पट फहराए हैं।।
नागर निसान नाद नूपुर-समूह बाजैं,
अंग के सुबासनि सौं भ्रमर छूटि आए हैं।
बृंदाबन बीच पायँ धरत उठीं यौं गाय,
मानौं घन स्याम जानि मोर कुहकाए हैं।।

पद (राग-जंगला, ताल-कहरवा)

अरी तुम कौन हौ री, फुलवा बीननहारी ।।टेक।।
नेह लगन कौ लग्यौ बगीचा, फूलि रही फुलबारी ।
कृष्नचंद बनमाली आए, बोलौ क्यौं ना प्यारी ।।1।।

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गुरुवार, 1 सितंबर 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

बिना कहें मेरौ पट सुरझायौ, इकटक मो तन रह्यौ निहारि ।।
पट सरुझाकर मन अरुझायौ, कहा कहूँ लज्जा की बात ।
हौं गुरुजन जर दबी जात री, इत वे सैननि हा-हा खात ।।
नाम न जानौं वाकौ, स्याम बरन हुतौ, पीत बरन बर हुतौ री दुकूल ।
वाहि बन लै चलि नागरिया फिरि बीनन साँझी के फूल ।।

सखी! मैं फूल बीनत-बीनत जमुना तट पै जाय पौहौंची। तहाँ अरनी की डार में मेरौ अंचल उरझि गयौ ।

सखी- तौ हम कौं क्यौं न बुलाय लीनी?

श्रीजी- अरी, मैंनें तुम सबन के नाम लै लै-कैं हेला दिए, परंतु काऊ नें नायँ सुनी।

सखी- तौ कौन नें सुरझायो?

श्रीजी- सखी! तब वा मालती कुंज में सौं लता हटामतौं भयौ मेरी ही दाईं एक बड़ोई सुकुमार निकसि कैंनें आयौ। वा बिना हीं कहें मेरौ अंचल सुरझाय दियौ और इकटक मेरी ओर देखिबे लग्यौ। वानें मेरौ वस्त्र तौ सुरझाय दियौ, परंतु मेरौ मन उरझाय लियौ। और तोसौं का कहूँ, कहिबे में लाज लगै है- सखी! मैं तो सकुच के मारैं दबी जाय रही और उतकूँ वह नैनन में हीं मेरी हाहा खाय रह्यौ।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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मंगलवार, 30 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

पद (राग पीलू, ताल अद्धा)

रहे दोउ बदन निहारि-निहारि ।
फूलनि बीनत सबै सखी उत, इत स्यामा सुकुमारि ।।
लता करनि में रहि गइँ इत-उत, कौन सकै निरवारि ।
नागरिया मिले नैन दुहुनि के, बड़े ठगनि ठगवारि ।।

(श्रीजी सखिन की ओर जायँ, ठाकुरजी लतान में छिपि जायँ)

सखी- प्यारी! हम सब तौ झोरी भरि-भरि कैं बौहौत फूल लाई हैं, परंतु आपकी झोरी में तौ थोरे से ही फूल दीखैं हैं, और आपकौ मुख हू उदास है। कहा बात है गई, कछू बताऔ तौ सही।

श्रीजी-

पद (राग-चैती, ताल धीमा तिताल)

फुलवा बीनन हौं गई री जमुना-कूल द्रुमन की भीर ।
अरुझयौ आय अरनि की डरियाँ तिहिं छिन री मेरौ अंचल चीर ।।
तब कोउ आय अचानक निकस्यौ मालति लता सघन मंझार ।
बिना कहें मेरौ पट सुरझायौ, इकटक मो तन रह्यौ निहारि ।।
पट सरुझाकर मन अरुझायौ, कहा कहूँ लज्जा की बात ।
हौं गुरुजन जर दबी जात री, इत वे सैननि हा-हा खात ।।
नाम न जानौं वाकौ, स्याम बरन हुतौ, पीत बरन बर हुतौ री दुकूल ।
वाहि बन लै चलि नागरिया फिरि बीनन साँझी के फूल ।।

सखी! मैं फूल बीनत-बीनत जमुना तट पै जाय पौहौंची। तहाँ अरनी की डार में मेरौ अंचल उरझि गयौ ।

सखी- तौ हम कौं क्यौं न बुलाय लीनी?

श्रीजी- अरी, मैंनें तुम सबन के नाम लै लै-कैं हेला दिए, परंतु काऊ नें नायँ सुनी।

सखी- तौ कौन नें सुरझायो?

श्रीजी- सखी! तब वा मालती कुंज में सौं लता हटामतौं भयौ मेरी ही दाईं एक बड़ोई सुकुमार निकसि कैंनें आयौ। वा बिना हीं कहें मेरौ अंचल सुरझाय दियौ और इकटक मेरी ओर देखिबे लग्यौ। वानें मेरौ वस्त्र तौ सुरझाय दियौ, परंतु मेरौ मन उरझाय लियौ। और तोसौं का कहूँ, कहिबे में लाज लगै है- सखी! मैं तो सकुच के मारैं दबी जाय रही और उतकूँ वह नैनन में हीं मेरी हाहा खाय रह्यौ।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 22 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(श्रीजी कौ अंचल फूल बीनत में एक बृच्छ की डारी सौं उरझि जाय। तब श्रीजी सब सखीन कौ नाम लै लै कैं हेला दैं, परंतु कोई सकी नहीं सुनै। तब उन लता-कुंजन सौं ठाकुर जी पधारि कैं वा वस्त्र कूँ सूरझाय दैं और इकटक श्रीराधा-मुख चंद्र के दरसन करते रहें)

पद (राग शुद्ध सारंग, ताल धमार)

आनँद सिंधु बढ़यौ हरि तन में।
राधा-मुख पूरन ससि निरखत उमगि चल्यौ ब्रज बृंदाबन में ।।
इत रोक्यौ जमुना, उत गोपिन, कछूक फैलि पर्यौ तिभुवन में ।
ना परस्यौ करमठ अरु ग्यानी, अटकि रह्यौ रसिकन के मन में ।।
मंद-मंद अवगाहत बुधि-बल भक्त हेतु लीला छिनु-छिनु में ।
कछुक लह्यौ नँदसूनु कृपा तें, सो देखियत परमानँद जन में ।।

(दोहा)

मिलत नवावत नव लता, अंचल छुटत दुकूल ।
इत-इत बाढ़ी दुहून मन फूलन बीनत फूल ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 20 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

प्रिये! जब-जब आप या बन में पधारौ हौ, तब ही तब यहाँ अद्भुत सी बात देखिबे में आवै है। या बन के फूल-फल, बेलि बीरूध आप के दरसन करत ही प्रफुल्लित है जायँ है। बृच्छन पै बैठे तोता, पपैया, कोकिलाएँ मधुर-मधुर सुर सौं बोलि कैं फूल झरावैं हैं, मानौं ये आपकी फूलन सौं सेवा करि रहे होयँ, और इन बृच्छन की डारैं फूलनि तथा फलनि के भार सौं झुकि कैं धरती कूँ छी रही हैं, मानौं ये बृच्छ अपनी डारी रूप हाथन में फल लैकैं आप के चरनन में भेट करि रहे होयँ। और ये मतवारे भौंरा कैसी मधुर गुंजार करि रहे हैं, मानौं या बन में आप के पधारिबे सों प्रसन्न होय हृदय की हुलास सौं आप के निर्मल जस कौ गान करि रहे होयँ।

श्रीजी- सखीयौ! अब तुम सब न्यारी-न्यारी भाँति के फूल लाऔ, और मैं इत माऊँ जमुना तट की कुंजन में सौं सुंदर फूल लाऊँ हूँ।

समाजी-

(दोहा)

हरषि फूल वीनत अली, डलिया काँख लगाय ।
नबल बाल बृषभानु की न्यारे चली सुभाय ।।
औचक पट अरुझयौ प्रिया, परसि कटीली डारि ।
कहँ ललिता चंपकलता, कहत पुकारि-पुकारि ।।
सघन मालती कुंज, तहँ ठाड़ी लली सुजान ।
नबल कुमार ब्रजराय कौं दई दिखाई आन ।।
नैननि सौं नैना मिले, इकटक रहे निहारि ।
इन अरुझी अँखियान कौं कौन सकै निरवारि ।।
तब नागर नँदलाल नें पट दीयौ सुरझाय ।
पै मन अरुझयौ दुहुँन कौ, घर कौं चल्यौ न जाय ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(लतान की ओर देखि कैं)
हैं, ये प्रकस काहे कौ भयौ? हाँ-

(दोहा)

गजगामिनी भामिनी मेरी आवत इतहिं लखात ।
दुरि या तरु की ओट में सुनूँ रसीली बात ।।

गज-गति सौं चलिबे बारी मेरी प्रिया अपनी सहेलीन कूँ संग लै इतही कूँ पधारि रही हैं, सो मैं, इन लतान में दुबकि कैं इन की रसीली बार्ता सुनूँ।

(श्रीकृष्ण मालती लतान में छिपि जायँ)

पद (राग-देस, ताल रूपक)

यह बन आप ही सौं सुहात ।
परत ही तुव चरन यहाँ कुछ होत अद्भुत बात ।।
फूल-फल, द्रुम बेलि-बीरुध, सबहि अति सरसात ।
बृच्छ चढ़ि सुक-कोकिला-पिक बोल, फूल झरात ।।
डार द्रुम फल-भार सौं झुकि-झूमि भुव परसात ।
मनहुँ निज फल भेट लै तुव पद-कमल सिर नात ।।
मत्त मधुकर दल सबहि मिलि मधुर सबद सुनात ।
मनहुँ बल्लभ आगमन लखि बिमल तुव जस गात ।।

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बुधवार, 17 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीसाँझी-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(स्वागत)

पद (राग हमीर, तीन ताल)
मोहि अति लागत श्रीबन नीकौ ।
बिकसित कुसुम सुबासित चहुँ दिसि, सुंदर सब्द अली कौ ।।
बोलत सुक-पिक, डोलत खग-मृग, अद्भुत नृत्य सिखी कौ ।
बल्लभ कृष्न जदपि सुख-सागर, प्रिया बिना सब फीकौ ।।

यह श्रीबन मोकूँ बहुत ही प्यारौ लगै है; या में मोगरा, कुंद, केतकी, मालती, मोतिया, चमेली, चंपा, गुलाब, गैंदा, सेवती, निवारौ, राइबेल, पारिजात, कदंब, पलास, कमल तथा औरहू नाना भाँति के पुष्प खिले हैं। और कैसी सुंदर लताएँ झुकी हैं, तिनमें पुष्पन की गंध सौं मतवारे होय भौंरा कैसी गुंजार करि रहे हैं। बृच्छन की डारिन पै बैठि कैं तोता, पपैया, कोकिला कैसे मधुर-मधुर बोलि रहे हैं। और ये मोर कैसो अद्भुत नृत्य करि रहे हैं! सीतल मंद सुगंधित पवन चलि रही है। जद्यपि यह वृंदाबन सब सुखन कौ समुद्र है, तथापि मेरी प्रानेस्वरी श्रीराधा बिना यह सब फीकौ लगै है।

(अरिल्ल छंद)

साँझी-सुख-समूह कौन बिधि बिलसिहों ।
प्रानप्यारी राधा बिनु क्यौं हुलसिहौं ।।
तुव मुख कमल पराग नैन अलि मेरे हैं ।
मम सिर मंडन करन चरन बलि तेरे हैं ।।
कुटिल अलक आस्त्रय ते कुटिल भयौ मन मेरौ ।
सरल होउँगौ निरखि सरल मुख हेरें तेरौ ।।
साँझी हित बीनन फूल यही बन आइहौ ।
यहि आसा, याही मिस दरसन पाइहौं ।।

हाँ, साँझी चीतिबे कूँ फूल लैबे के ताईं या बन में अवस्य पधारैंगी सो यहाँ ही उनके दरसन है जायँगे।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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मंगलवार, 16 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

( गत ब्लाग से आगे )

🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

 ‘पद-रत्नाकर’ से ......

(राग देश-तीन ताल)
दोऊ सदा एक रस पूरे ।
एक प्रान, मन एक, एक ही भाव, एक रँग रूरे ।।
एक साध्य, साधनहू एकहि, एक सिद्धि मन राखैं ।
एकहि परम पवित्र दिब्य रस दुहू दुहुनि कौ चाखैं ।।
एक चाव, चेतना एक ही, एक चाह अनुहारै ।।
एक बने दो एक संग नित बिहरत एक बिहारै ।।

🌹 श्रीसाँझी-लीला :

🌹 मंगलाचरण :

(श्लोक)
राधाकरावचितपल्लववल्लरी के राधापदांकविलसन्मधुरस्थली के ।
राधायशोमुखरमत्तखगावलीके राधाविहारविपिने रमतां मनो मे ।।

‘हे मेरे मन! तू श्रीराधा कर कमल सौं स्पर्श करे भए पल्लवन वारी वल्लरीन सौं मण्डित, श्रीराधा-पदांकन सौं सोभित मनोहर स्थलन सौं युक्त एवं श्रीराधा-यशगान सौं मुखरित मत्त खगावली द्वारा सेवित श्रीराधा-कुञ्ज-केलि-कानन श्रीबृन्दाबन में रमण कियौ कर।’

समाजी-

पद (राग ईमन, तीन ताल)
और कोऊ समझौ सो समझौ, हम कूँ इतनी समुझ भली ।
ठाकुर नंदकिसोर हमारे, ठकुराइन बृषभान-लली।।
श्रीदामादिक सखा स्याम के, स्यामा सँग ललितादि अली ।
ब्रजपुर बास, सैल-बन बिहरन, कुंजन-कुंजन रंग रली ।।
इन के लाड़ चहूँ सुख अपनौ, भाव-बेलि रस फलन फली ।
कहैं भगवान हित रामराय प्रभु सब ते इन की कृपा बली ।।

श्रीजी-

पद (राग धुन गारौ, तीन ताल)
बृंदाबन फूलन सौं छायौ ।
चलौ सखी फुलवा बीनन कूँ साँझी कौ दिन आयौ ।।
प्रेम-मगन ह्वै साँझी चीतौ, पचरँग रंग बनाऔ ।
बृंदाबन हित रूप लाल के मन में मोद बढ़ाऔ ।।

सखीयौ! साँझी के दिन आय गए हैं, सो चलौ बृंदाबन में सौं फूल बीनि ल्यावैं, ता पाछें अनेक रंगन के फूल भरि कैं ऐसी साँझी सजाऔ, जाकौं देखि कैं प्यारे स्याम सुंदर अति प्रसन्न होयँ।
सखी- हाँ, प्यारीजी! बृंदाबन में बड़े ही सुंदर फूल खिले हैं, अब बेगि ही पधारौ ।
(श्रीजी सब सखीन कूँ संग लै कैं बृंदाबन पधारैं) (पटापेक्ष)
श्रीकृष्ण-(बृंदाबन में विराजे हैं)

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 15 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

यशोदा- तौ सखीयौ, तुमहीं लै आऔ।
सखी- नहीं, नहीं हम स्याम-कलंकिनी हैं।
यशोदा- अरी, एक जटिला नाम की वृद्धा जावट में रहै हैं, वाकूँ बुलाऔ।
(जटिला कूँ बुलाय सब बात कहनी)
जटिला- मैं अपनी सती-बल सौं कठिन सौं-कठिन काम करि सकूँ हूँ अबहीं जाऊँ।

समाजी-

(चौपाई)
जबही पाँव सेतु पै डार्यौ, सो तौ बल नैंकहुँ नहिं धार्यौ ।।
टूटि गयौ सो पाँव धरत ही, सो जमुना में जात बहत ही ।।
ताही छिनु जो भई नभ बानी, भरि न सकौ तुम जमुना पानी ।।
हौ तुम सती सो ब्रज नें चीन्ही, तुम राधा की निंदा कीन्ही ।।
तुम्हरौ सब बल घटि गयौ तासौं, सेतु न पार करि सकौ यासौं।।

वैद्य- मैया, मैं और उपाय बताऊँ हूँ ब्रज में एक परम सती हैं, उनकी चरन-रज सौं बिस्व पावन होयगौ। उनहीं कूँ बुलाऔ। उनकौ नाम है श्रीराधा वे वृषभानुजी की पुत्री हैं।

सखी- (बुलाय कै लावै, उन सौं सब बात कहै, श्रीजी कलश लैकें जमुनाजी पै जायँ)

समाजी-

पद (राग धूरिया मलार, तीन ताल)
आवत ही घट लियौ उठाई।
प्रथम प्रनाम सेतु कौं कीनौ, तापर आप चढ़ी हरषाई ।।
तीन बार जमुना पै इत-उत, बीच धार जल घट भरि लाई ।
जै हो जै हो सती राधिका! ब्रजबासिन सब धुनी लगाई ।।
बरषत सुमन चहूँ दिसि नभ सौं, हरषि सुरन दुंदुभी बजाई।
पुनि कह्यौ वैद, देवि! अपने कर नैनन सौं जल देहु छुबाई ।।
देखत नंद घरनि मन हुलसी, हरखि उठे तब कुँवर कन्हाई ।
तब जुबती अपराध छमायौ, कह्यौ कोउ राधा सम नाहीं।

पद (राग बहार, तीन ताल)
धन्य, धन्य, बृषभानु कुमारी !
धनि माता, धनि पिता, धन्य ब्रज, धनि तो सी उपजाई प्यारी ।।
धन्य दिवस, धनि निसा तबहि की, धन्य घरी, धनि जाम ।
धन्य कान्ह तैरौ बड़भागी, धनि बस कीने स्याम ।
धनि मति, धनि गति, धनि तेरौ हित, धन्य भक्ति, धनि भाव ।
सूर स्याम पति धन्य, नारि तू धनि, धनि एक सुभाव ।।

।। श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला संपूर्ण ।।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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रविवार, 14 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीराधा-

पद (राग भीमपलासी, ताल कहरवा)
ऐ री मोहि स्याम सुंदर सौं आनि मिलावै कोय ।
मेरे तौ, मोहन! तुम ही हौ जीवन-प्रान-अधार ।
बीच भँवर मेरी नाव परी है, तुम ही खेवनहार ।।
चाहौ तौ अब पार करौ, चाहौ तुम देहु डुबोय ।।1।।
भाव हृदय के फूल मँगाए, आसा की कर डोर ।
स्वास-सुई में आँसू गूँथे, नेह-छोर दियौ जोर ।
लीए री मैंने स्याम रंग में तन मन सबहि भिजोय ।।2।।

प्रीतम! बस, इतनौ हीं चाहूँ कि जीवन में, मृत्यु में, जन्म-जन्मान्तर में तुम ही मेरे प्राननाथ बने रहौ, तुम्हारे चरन और मेरे प्रानन में प्रेम की गाँठ लगी रहै। मैं तुम्हारे चरनन में अपनौ जीवन समर्पित कर चुकी, प्रानेस्वर! त्रिभुवन में तुम्हारे सिवाय मेरौ और कौन है, जो मोकूँ राधा कहि कैं पुकारै? कहाँ जाऊँ, चारों ओर ज्वाला जरि रही हैं; वाकूँ सीतल करिबे कूँ केवल आपकौ ही मुखचंद्र है। वाके सिवाय और मेरी गती ही कहाँ है। तुम यदि दूर फेंक देऔगे तो मैं अबला कहाँ जाऊँगी। तिहारे बिना देखें मेरे प्रान निकसिवे कूँ आतुर है जायँ हैं। प्रीतम! कहा साँचें ही मोकूँ आपसौ सौ बरस अलग रहनौं परैगो? हाय! जा समय मैंनें सुदामा कूँ श्राप दियौ, तब मेरी जीभ क्यों न जरि गई? प्राननाथ ! प्यारे !

 (पटापेक्ष)

(सखी दौरि कैं जसोदा जी सौं कहैं)
सखी-अरी मैया! देख, न जानें तेरे लाला कूँ कहा है गयौ। वाकूँ चेत ही नहीं होय है।
यशोदा- अरी, लाला है कहाँ?
सखी- खिरक में है।
यशोदा- (खिरक में पहुँचि कै कृष्ण कूँ देखनौं)
हाय! हाय! याकूँ तौ न जानें कहा है गयौ? काहू उपचारक कूँ बुलाऔ।
(श्रीकृष्ण की अनुहारि एक वैद्य, लतान सौं निकसि कैं आवैं)
वैद्य- मैया, याकौ मैं उपाय बताऊँ हूँ। मेरे पास ये एक हजार छिद्र वारौ कलस है, याकूँ कोई सती स्त्री लैकैं जमुना जी पै जाय वहाँ कन्हैयाँ के केस कौ एक सेतु बन्यौ भयौ है, वा सेतु पै तीन बार या पार सौं वा पार होय बीच धार सौं जल भरि कैं लावै, तब वा जल सौं लाला ठीक होयगौ।
यशोदा- वैद्यजी, ये बात तौ असंभव है।
वैद्य- व्रजरानी जी! सती की महिमा अपार होय है। सती सून्य पैं चलि सकै, आकास में जल स्थिर करि सकै। और यह ब्रज तौं सतीन के लिए विख्यात है।
वैद्य- हाँ, हाँ, आप तौ लाय सकौ, किंतु मैया के हाथ कौ जल या समय काम नहीं आय सकै।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 13 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण- हे किसोरी जू! आज आप कूँ जल भरिबे कूँ बहुत देर भई।

श्रीजी- कहा कहूँ, प्यारे? आप की लीला आप ही जानौ ।

(सवैया)
देखे बिना छिनहुँ, मन-मोहन! ये अँखियाँ अतिही अकुलानीं ।
लाज तजी, कुल-कानि नसी, तुम्हरे हित में नित आवत पानी ।।
अब तौ यह जीवन भार भयौ, अपने किए कौं आपुहि पछितानी ।
सगरौ ब्रज मेरौ जबाब करै, सो तजौं अब देह, यही मन ठानी ।।

प्यारे! अब या लीला कूँ यही समाप्त करि देउ। ब्रज की लुगाइन ने हमारी और आपकी बुराई करनौ ही जीवन कौ आदर्श बनाय राख्यौ है। सुनि-सुनि कैं हृदय जर्जर है गयौ है। कान बहिरे भए जाएँ हैं। यासौं या मृत्युलोक कौ जीवन असह्य है गयो है। काहू दिनाँ या देह कूँ जमुना में डुबोय दऊँगी, यही मनमें आवै है।
 
     श्रीकृष्ण- प्रिये! धैर्य धारन करौ, अबहीं तौ प्रथम चरन है। अबहीं हमने जीवन-समूह के कल्याणार्थ तौ कछू कियौ ही नहीं है। अब कार्य प्रारंभ भयो है, सो आप सब जानौ हौ। आपनें गोलोक में जो सुदामा गोप कूँ श्राप दियौ और सुदामा नें आप कूँ मोते सौ बरस अलग रहिवे की बात कही, सोहू पूरी करनी हीं परैगी। आपनें ही या लीला की रचना करी है, अब याकूँ समयानुसार आप ही पूरी करौगी। यासौं जानि-बूझि भोरी मत बनौ। मेरे ऊपर सदैव ऐसी कृपा राखियौं, जासौ मैं सब कार्य में सफल होतौ रहूँ और याहू बात कौ आज निर्नय है जायगौ। अब आप घर पधारौ।

(श्रीजी अपने घर पधारैं)

श्रीकृष्ण- हाय! मेरे ही कारन किसोरी जी कूं इतनौ सहनौ परै है। जो सिव-बिरंचि-अंगिरादिकन के ध्यान में नहीं आवैं, वे ही मोते मिलिबे कूँ जमुना-जल के मिल सीस पै भारी गागर लैकैं नंगे पायन पधारैं हैं! प्यारो, यह कान्ह आपकौ अपराधी है, हे दयामयी, मेरे अपराध कूँ छमा करौ।

(श्रीकृष्ण कौ मूर्छित हौनौं) (पटापेक्ष)

(श्रीराधा अपने कक्ष में बैठी फूल-माला बनावैं, सामने श्रीकृष्ण कौ चित्र रहै)

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

पद (राग पीलू, तीन ताल)

कब की गई न्हान तू जमुना, यह कहि-कहि रिस पावै ।
राधा कौ तुम संग करत हौ, ब्रज उपहास उड़ावै ।।
वे हैं बड़े महर की बेटी, तो ऐसी कहि आवै ।।
सुनौ सूर यह उनही भावै, यह कहि-कहि जो डरावै ।।
(श्रीजी पर्दा की ओर सौं सुनि, घबराय कान बंद करैं; गागर लैकैं जमुना जानौं)

(श्रीकृष्ण अकेले जमुना पै बैठे गावैं)

श्रीकृष्ण-

(कवित्त)

फूलि रही लता, द्रुम-डारी हरी झूमि रहीं,
चहुँ हरियाली सौं लुभात अति जीकौ है।
दादुर-पुकार, झनकार सुनि झींगुर की,
मोरन कौ नृत्य सब्द कोयल अमी कौ है ।।
बादर की गरज औ लरज नीकी दामिनि की,
पवन सुगंध मानों वार बरछी कौ है ।
गहबर बन नीकौ, बास खोर साँकरी कौ,
लगे कुँवर नहिं जीकौ आज प्रिया बिना फीकौ है।

(श्रीजी जल भरिबे पधारैं)

समाजी-

पद (राग खंभावती, तीन ताल)

कृष्ण दरस सौं अटकी ग्वालिन ।
बार-बार पनघट पै आवत, सिर जमुना जल-मटकी ।।
मन-मोहन कौ रूप-सुधा-निधि पिवत प्रेम-रस गटकी ।
कृष्नदास धनि-धन्य राधिका, लोक-लाज सब पटकी ।।

पद (राग देश, तीन ताल)

चितवनि रोकें हूँ न रही ।
चितवनि रोकें हूँ न रही।
स्याम-सुंदर सिंधु सनमुख सरिता उमगि बही ।।
प्रेम सलिल प्रबाह भँवरनि मिति न कबहुँ लही ।
लोल लहर कटाच्छ, घूँघट-पट करार ढही ।।
थके पलकन नाव धीरज परत नाँहि गही ।
मिली सूर समुद्र स्यामहिं फिरि न उलटि बही॥

( शेष आगे के ब्लाग में )

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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

(श्लोक)
अकारुण्यः कृष्णो यदि मय तवागः कथमिंद
मुधा मा रोदीर्मे कुरु परमिमामुत्तरकृतिम् ।
तमालस्य स्कन्धे सखि कलितदोर्वल्लरिरियं
यथा वृन्दारण्ये चिरमविचला तिष्ठति तनुः ।।

अर्थ- जमुना किनारें जो तमाल बृच्छ दीखै है, वाकौ वर्ण मेरे प्रीतम-जैसौ स्याम है। बस, मेरे लिए इतनौ ही पर्याप्त है कि वा तमाल बृच्छ की मोटी साखा पै मेरे मृतक सरीर कूँ लिटाय दीजौं और मेरे दोऊ हाथन कूँ तमाल- साखा सौं लपेट अच्छी तरह बंधन लगाय दीजौं कि जासौं चिरकाल ताईं मेरौ यह सरीर बृंदावन में ही तमाल-साखा पै बिस्राम करतौ रहै। परंतु वा चित्र कूँ तौ एक बार औरहू देखि लऊँ, साच्छात तौ वा त्रैलोक- मोहन मुख चंद्र कूँ नहीं देख सकी? प्रान निकरिबे ते पहिलें वा चित्र कूँ औरहू दिखाय दै, जासौं मेरे प्रान सीतल है जायँ और वा त्रिभंग-सुंदर छबि में अनंत काल के ताईं लीन है जायँ।

सखी- प्यारी, वह चित्र तौ घर है।

श्रीजी- हाय! हाय! इतनौ हूँ सौभाग्य नहीं। आऔ, प्यारे प्रानेस्वर!

 (दोहा)
एक बार तौ आय कैं, नाथ! दरस दै जाव ।
अंतिम की अभिलाष है, याहि मती ठुकराव ।।
(श्रीकृष्ण पधारैं)
श्रीकृष्ण-

(दोहा)
हे राथे मन-भाँवती, रूप-रासि, गुन-धाम ।
तेरी ही स्वासा बँध्यौ आयौ तेरौ स्याम ।।
(दोनो अंक भरि भेटैं)(पटापेक्ष)

एक वृद्धा-क्यों री, बहू! कहाँ गई हती? इतनी दे कैसें भई?

बधू-अजी सासूजी, मैं जमुना स्नान करिबे गई हती।

वृद्धा-हूँ! हूँ! वहाँ राधा मिलि गई होयगी, सो वासौं बतरावन घुटी होयगी। हमें तेरी यह बात अच्छी नायँ लगै, भले घर की बहू बेटी कहा ऐसैं डोलैं? तैनें अब राधा कौ संग लियौ है। वानैं तौ अपने कुल कौ नाम खूब ऊंचौ करि राख्यौ है, वह तौ वा नंद के छोरा सौं बतरायौ करै है।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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सोमवार, 8 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर~लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम~ प्रकाश~ लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

वाते दो ही पहर पहिलें श्रीकृष्ण कूँ आत्मसर्पन करि चुकी ही, फिर वा चित्र पै आसक्ति भई, और थोरी देर में सब भलि वा बंसी के नाद प्रवाह में बह गयी, उन्मादिनी है गई, सब सुधि-बुधि भूलि गई। ओह! धिक्कार है मो जैसी कूँ कि जानें तीन पुरुषन कूँ आत्मसमर्पन कियौ, तीन पुरुषन कँ प्यार कियौ। उन तीनोंन के प्रति हृदय में रति उत्पन्न भई। ऐसे जीवन सौं तौ मृत्यु ही श्रेष्ठ है। ऐसे सरीर कूँ अब नहीं राखूँगी, याकूँ तौ अब जमुना के ही भेट करूँगी।’

(भागि कैं यमुना की ओर जानौ; सखी-अंक में भरि लेय)

सखि- प्यारी! हमें कौन के सहारें छोड़ि रही हौ? और आप कहि रही हौ कि मैंने तीन पुरुषन सौं प्यार कियौ, सो वे तौ तीन्यौ एक ही हैं- नाम कृष्न कौ, चित्र हूँ कृष्न कौ और बंसी हूँ कृष्ण की! आप नैंक धीरज धरौ।

श्रीजी- बहिन! तू क्यौं रोवै है, यामें तेरौ कछू दोस नायँ। तैंने तौ श्रीकृष्ण सौं मिलायबे के अनेक प्रयत्न किए, किंतु तू मेरे मंदभाग्य कूँ कैसैं पलटि सकै है।

(कंकन उतारि कै सखी कूँ दैनौं)

लै, बहिन बिसाखे! ये मेरौ स्मृति-चिह्न मेरी प्यारी सखी ललिता कूँ दै दीजौं। किंतु तोय दैबे जोग्य मेरे पास कोई वस्तु नहीं। लै, ये मेरी सदाँ के ताईं अंतिम बिदा की तुच्छ भेट! तू याकूँ अस्वीकार मत करियौं। या मुद्रिका कूँ देखि कैं कबहुँ मेरी याद करि लेऔ करियौं। बस, अब विशेष समय नहीं है, हृदय कूँ पत्थर करि लै। अब अपनी अंतिम बासना और सुनाय रही हूँ, वाकूँ धैर्य धरि कैं सुनि लै।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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शनिवार, 6 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹 श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीजी-

पद (राग देश, तीन ताल)
स्याम, सखि! नीकैं देखे नाहीं ।
चितवतहीं लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहीं ।।
कैसैंहूँ करि इकटक राखत नैंकहि में अकुलाहीं ।
निमिष मनौं छबि पर रखवारे ताते अतिहि डराहीं।।
कहाँ करूँ, इन कौ कहा दूषन, इन अपनी सी कीनी ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सब सोभा लीनी ।।

हाय-हाय! मेरे हृदय में तौ अग्निकुंड है, धक-धक करती अग्नि जरि रही है। परंतु मैं क्यों नहीं जरूँ हूँ? हाँ, स्याम-जलधर की वर्षा है रही है।
(वेणुनाद सौं चौंकि कैं)
हें, यह काहे की धुनि है?
सखी- प्यारी! यह बंसी ध्वनि है।
श्रीजी- हाय! बंसी-ध्वनि है कि अमृत निर्झर, सुधा प्रवाह?

 (श्लोक)
नादः कदम्बविटपान्तरतो विसर्पन् को नाम कर्णपदवीमविशन्न जाने ।

अर्थ- ओह! यह कदंब बृच्छन सों जानें कैसी ध्वनि आई? यह मेरे कानन में प्रविष्ट है गई। हाय! कदाचित् या अमृत बरसायबेवारे के रूप कूँ देख लेंती।
सखी- अरी, बावरी सखी! यह तौं बंसी-धुनि हती ।
श्रीजी- तौ यह बंसी धुनि कौन की ही? चलि, वाकूँ देखें।
सखी- प्यारी जू! आप तौ न जानें कहा कहा कह रही हो! हमारी तौ समझ में कछू आवै नहीं है।
श्रीजी- हा! हा!! हा!!! सुनौंगी – सु – नौं-

(श्लोक)
वितन्वानस्तन्वा मरकतरुचीनां रुचिरतां
पटान्निष्क्रान्तोऽभूद्धृतशिखिशिखण्डो नवयुवा ।।

अर्थ- महामरकत-द्युति अंग ते सोभा झर रही ही, माथे पै मोरपंख सोभा दै रहौ हौ। नव-किसोर स्यामघन-
सखी- किसोरी! तुम ने सुपनौं तो नही देख्यौ?
श्रीजी- स्वप्न या जागरन, दिन अथवा रात्रि-यह मैं नहीं जान सकी। जानिबे की शक्ति कहाँ रही? वा स्याम ज्योति में सागर लहराय रह्यौ हौ; वह लहर मोहूँ कूँ बहाय लै गई। नाचती भई चंचल लहर में मैं हूँ चंचल है उठी, फिर जानिबे कौ समै ही कहाँ मिल्यौ।

( शेष आगे के ब्लाग में )

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गुरुवार, 4 अगस्त 2016

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🌹 श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

सखी- वे तौ नंद के लाल श्रीकृष्ण हैं, उनहीं सौं कन्हैयाँ कहैं हैं।
श्रीजी- हाँ, कन्हैयाँ- नामहू बौहौत प्यारौ लगै है।

(पद)
कैसे हैं नँद-सुवन कन्हाई?
देखे नहीं नैन भरि कबहूँ, ब्रज में रहत सदाई ।।
सकुचत हौं इक बात कहति मैं, तुम सौं दऊँ जनाई ।
कैसैंहुँ मोय दिखावौ उन कूँ, यह मेरे मन आई ।।
अतिही सुंदर कहियत हैं वे, मोकूँ देहु दिखाई ।
सूर सखी राधा की बानी सुनत सबै भरि आई ।।

सखी-

(पद)
सुनि राधे तोहि स्याम मिलैं हैं।
जहाँ-तहाँ ब्रज-गलिन फिरत हैं, जबही वे यह मारग ऐहैं।।
जब हम कहुँ उन कूँ देखैंगी, तबही तोहि बुलैहैं।
उनहू कैं लालसा बहुत है, तोहि देखि सुख पैहैं।।
दरसन ते धीरज जब रहिहै, तब ही तोहि पतैहैं।
सूरदास प्रभु नवल कान्हवर पीतांबर फहरैंहें ।।

श्रीजी- (उठिकैं दौरनौ) चलि, उनके पास चलें; वे कहाँ मिलैंगे?
सखी- (पकरि कैं बैठावै) प्यारी! धीरज धरौ ।
(स्यामसुंदर कौ चित्र श्रीजी कूँ दिखानौ)

पद -(राग-तिलक कामोद, ताल-झूमरा)
देख री, नवल नंद किसोर ।
लकुट सौं लपटाय ठाड़े जुबति जन-मन-चोर ।।
चारू लोचन हँसि बिलोकनि देखि कैं चित्त भोर ।
मोहिनी मोहन लगावत लटकि मुकुट-झकोर ।।
स्रवन धुनि सुनि नाद मोहत करत हिरदैं कोर ।
सूर अंग त्रिभंग-सुंदर छबि निरखि तृन तोर ।।

समाजी-

(दोहा)
चित्र देखि भइ चित्र सम, भरि आए जल नैन ।
अंचल सौं पोंछत कुँवरि, बोले जात न बैन ।।

सखी- प्यारी! चित्र देख लियौ, अब याकूँ धरि आऊँ?

( शेष आगे के ब्लाग में )

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मंगलवार, 2 अगस्त 2016

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🌹श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :
🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

(दोहा)
बिधिनाँ सब बिधि वेद पढ़ि दीनौं ब्याह कराय ।
हृदय राखि छबि जुगल की चले परम हरषाय ।।
कोई यह जानी नहीं लीला परम अनूप ।
लीलामय लीला करन फिर भए बाल सरूप ।।
(श्रीकृष्ण बालरूप सौं श्रीजी की अँगुरिया पकरें घर पधारैं)
श्रीजी-(यशोदाजी कूँ बुलावैं)
मैया, ये लाला मोकूँ बाबा ने खिरक में दियौ, लेऔ ।
यशोदा-ला बेटी! मैं तेरौ बड़ौ गुन मानूँगी ।

(दोहा)
रूप-गुन-बली, अति निपुन, जा सम और न कोय ।
बृद्धा की आसीम है, मिलै तोहि पति सोय ।।
(श्रीजी अपने घर पधार पुनः सखिन के संग फूल बीनबै पधारैं)

समाजी-
(कवित्त)
चलत है सखिन संग छबि सौं छबीली बाल,
जोति छूटी अंग सौं धरनि पर छाई है।
मुसिकन लखि मंद, चंद छिप्यौ है गगन माँहि,
अऩँग-तिय हार लखि हारि मन लाई है ।।
कुँवर, मतिमंद जानि चरन अरबिंद करन
पान मकरंद आज भीर उठि धाई है।
भौंरन की कतारन सौं बटोही हू जानि जात,
भानु की लली आज याही गली आई है।।

श्रीजी- सखी! कहा यही श्रीवृन्दावन है?
सखी- हाँ, प्रिये! यही श्रीकृष्ण क्रीड़ा कानन है।
(सुनतें ही श्रीजी के हाथ सौं फूल की डलिया गिरि जाय)
श्रीजी- सखी! कौन कौ नाम सुनायौ?
सखी- प्यारी, यह श्रीकृष्ण-क्रीड़ा-स्थल है; परंतु आप कूँ यह कहा भयौ? प्यास लगी होय तौ पानी लाऊँ, अपने मन की बात बताऔ।
श्रीजी – श्री-कृ-ष्ण – कृ-ष्ण।
सखी- चलौ, घर चलें।
श्रीजी- ओह, श्रीकृष्ण! कितना मधुर नाम है।
सखी- लाडिली! यह आप की कहा दसा भई? अंग ऐसौ मुरझाय गयौ है, मानों एक पच्छ सों कछु खायौ ही न होय; केस बिखरि गये हैं, सिर पै सारी ठहरै नहीं है, हम सौं बात हू नहीं करौ हौ, नेत्र रोय-रोय कैं लाल करि लिए हैं, कछु हमैं तो बताऔ।

श्रीजी-
पद (राग आसावरी, ताल चौताल)
कृष्ण नाम जब ते मैं स्त्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन मैं तौ बाबरी भई ।
भरि-भरि आवत नैन, चितहू न परत चैन,
मुखहू न फुरत बैन,
तन की दसा कछु और ही भई ।।
जेते नेम धरम ब्रत कीने मैं बहुत बिधि
रोम-रोम भई मैं तौ श्रवन-मई ।
नंददासप्रभु जाके श्रवन सुनें यह गति भई,
माधुरी मुरति किधौं कैसी दई ।।

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🌹श्रीराधा कृष्ण की मधुर लीलाएँ :

🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

( गत ब्लाग से आगे )

श्रीकृष्ण-

(श्लोक)
त्वं मे प्राणाधिका राधा प्रेयसी च वरानने ।
यथा त्वं च तथाहं च भेदो हि नावयोर्ध्रुवम् ।।

हे प्रिया! कहा आप गोलोक की बात कूँ भूलि गईं और मोहू कूँ भूलि गईँ? परंतु- मैं तुम कूँ नहीं भूल्यौ. मैं तुम कूँ भूलि जाऊँ- यह संभव नहीं। प्रिये! मेरे पास तुम सौं अधिक कोई बस्तु नहीं। मैं तुम्हें अपने जीवन की साध कहूँ, सोहू उचित नहीं लगै। वास्तव में हम और तुम दो नहीं- जो मैं हूँ, सो तुम हौ; जो तुम हौ, सो मैं हूँ। हम में नैंक हू भेद नहीं है। जैसे दूध में घौराई है, अग्नि में दाह-सक्ति है, ऐसैं ही हमारौ-तुम्हारौ संबंध है। यदि तुम न रहौ तौ मैं सृष्टि की रचना करिबे में कबहूँ समर्थ नहीं है सकूँ हूँ। कुम्हार मृत्तिका के बिना घट की रचना कर ही नहीं सकै है। स्वर्णकार सुवर्ण के बिना स्वर्ण-कुण्डल नहीं बनाय सकै है। तुम सृष्टि की आधारभूता सक्ति-स्वरूपिणी हौ- वाकौ अच्युत बीजरूप हूँ। सक्ति, बुद्धि, ग्यान, तेज- ये सब मोमें नित्य विद्यमान रहैं हैं। मेरे प्रान तुम्हारे लिए नित्य ब्याकुल रहैं हैं। मैं जा समै काहू के मुख सौं रा- सब्द सुनि लऊँ हूँ, तौ-

(श्लोक)
रा-शब्दं कुर्वतस्त्रस्तो ददामि भक्तिमुत्तमाम् ।
धा-शब्दं कुर्वतः पश्चाद्यामि श्रवणलोभतः ।।

वापै अति प्रसन्न हैकैं मैं अपनी बहुमूल्य संपत्ति प्रेम भक्ति वाकूँ दऊँ हूँ। किंतु अपने मन में भयभीत है जाऊँ हूँ कि वास्तव में ‘रा’ के उच्चारन कौ पुरस्कार तौ दै ही नहीं सक्यौ। और जा समैं वह ‘धा’ कौ उच्चारण करै है, तब तौ में वाकौ रिन चुकायवे में असमर्थ है जाऊँ, और दास बनि वाके पीछै-पीछै लग्यौ डोलूँ। मेरी प्रान-प्यारी कौ नाम मेरे कानन में अमृत-धार बहाय मेरे प्रानन कूँ सीतल-रसमय बनाय देय है।

(पद)
श्रीराधा-गुन गावै प्रीतम राधा-नाम-सुधा बरसाय ।
श्रीराधा के प्रेमांकुर कूँ, राधा-पति ही सींचत आय ।।
भाव-सिंधु उमग्यौ तिहिं अवसर, प्रबल तरंग न तनहिं समाय ।
मथनहार लै प्रेम-रतन कूं, सोऊ तामें चल्यौ बहाय ।।
रस अरु रसिक बहे जब जान्यौ, केवट आतुर लियौ उठाय ।
आज कुँवर पायौ जीवन-फल, विनवत तहाँ चतुर्मुख आय ।।

ब्रह्माजी- देवि! महायोगमणि, महाप्रभामयी मायेश्वरी, श्रीकृष्णचंद्र की आह्लादिनी शक्ति महाभावस्वरूपा श्रीराधा! महान सौभाग्य-फल दैवे कूँ, अति कियौ, वाके फलस्वरूप आपके चरनन के आज दर्शन भए।

(दोहा)
कृष्णरूपिणी, कृष्णप्रिय, पुनि पुनि जाचौं तोय ।
भक्ति अचल होय जुगल पद, कुँवरि! देहु बर सोय ।।

हे श्रीलीला-बिहारी-बिहारिन! अब अपनी लीला कौ कार्य प्रारंभ करौ।

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❄ श्रीराधा कृष्ण की मधुर-लीलाएँ :

🌹श्रीप्रेम-प्रकाश-लीला :

🌹मंगलाचरण:

(श्लोक)

कदा वा खेलन्तौ व्रजनगरवीथीषु हृदयं
हरन्तौ श्रीरादाव्रजपतिकुमारौ सुकृतिनः।
अकस्मात् कौमारे प्रकटनवकैशोरविभवौ
प्रपश्यन्पूर्णः स्यां रहसि परिहासादिनिरतौ।।

अर्थ- कहा कबहूँ मैं श्रीराधा और श्रीब्रजपति-कुमार कौ दरसन करि कैं पूर्णता कूँ प्राप्त होऊँगौ? जो काऊ समय व्रज-नगर की बीथी में खेलत फिरत एकांत पाय अचानक कुमार-अवस्था कूँ त्यागि कैं नव किसोरता के वैभव कूँ प्रगट करि दिव्य हास-परिहास मैं संलग्न है गये हैं एवं जो अपनी ऐसी प्रेम के लिए सौं सुकृती-जनन के हृदय कौ अपहरन करि रहे हैं।

(दोहा)
समाजी-
एक समय भांडीर बट सुतहि लिएं नँद गोद ।
धेनु-निरीच्छन करन कौं पहुँचे अति मन मोद ।।

 (श्लोक)

मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुवः श्यामास्तमालद्रुमै-
र्नक्तं भीरूरयं तदिमं राधे गृहं प्रापय ।
इत्थं नन्दनिदेशतश्चलितयोः प्रत्यध्वकुञ्जद्रुमं
राधामाधवयोर्जयन्ति यमुनाकूले रहःकेलयः ।।

(पद)
चकित भए नँदराय जानि यह सीतल-मंद बयार ।
श्रीराधा-अंग-कांति परत बन भयौ सकल उजियार ।।
कोटि चंद्र द्युति सम मुख झलकत, नील बसन सुभ अंग ।
कंचन कंकन हार मुद्रिका दुरे अंग के रंग ।।
भयौ प्रकास प्रथम दिसि, कैंधौं मिले काल यहि ठौर ।
कैसें पच्छिम छाँड़ि छिप्यौ रबि अब पूरब की ओर ।।
कैंधौं आज इंदु-मंडल में घिर्यौ मनिन कौ कोट ।
नंद-कुँवर कर ढाँपि नैन तब झाँकत अंगुरी ओट ।।

(कबित्त)
आजु यह भानु लली आई फूल बीनन कूँ,
देखि छबि कुँवरि बन मन सकुचायौ है ।
अंग की सुगंध ते फूल बिनु गंध भए,
मंद हँसनि देखि अरबिंद हू लजायौ है ।।
पट की फहरानि लखि समीर बिनु लहरि भई,
मुख कौ प्रकास दिस दस हू में छायौ है ।
किधौं आज मावस में उदय चंद पून्यौं भयौ,
किधौं निसि भूलि राह रबि-रथ आयौ है ।।

नंदरायजी- हैं! वृषभानु- कुँवरि? तू या समैं यहाँ कैसें आई? (स्वागत) हाँ, इन ही की अंग –प्रभा सौं ये प्रकास है रह्यौ हौ। ठीक! ये वेई राधा हैं! जब गर्गजी लीला कौ नाम-करन करिबे आए, तब उन नैं वृषभान-पुत्री की महिमा, राधा-तत्व की बात बताई हती। आज वोई रहस्य मेरे सन्मुख आयौ। देबी! मैं जानि गयौ पुरुषोत्तम श्रीहरि की तुम प्रानेस्वरी हौ मेरी गोद में तुम्हारे प्रानेस्वर स्वयं पुरुषोत्तम श्रीहरि बिराजमान हैं। लेऔ देबी! अपने प्रानेस्वर कूँ लै जाऔ! परंतु बड़े पुन्य प्रताप सौं यह आसारूप लता हरी भई है। सो यापै कृपा-बर्षा करती रहियौं, जासौं यह लता हरी बनी रहै। किंतु या समैं मैंनैं याकूँ पुत्ररूप में पायौ है, सो फिर मोही कूँ बगदाय कैं दै दीजौ।
(श्रीकृष्ण कूँ श्रीजी की गोद में दैनौं नंदराय खिरक में जायँ)
समाजी-
(दोहा)
कमल-पुंज के कर – कमल दीयौ कमल गहाय ।
बूड़ि कमल गये सिंधु में मिल्यौ कमल जब आय ।।
कमल-पुंज श्रीराधिका, कमलरूप घनस्याम ।
कमल-नैन, जलमय भए कमल नैन लखि बाम ।।
मार्ग में श्रीजी के हाथ सौं कृष्ण अन्तर्हित होयँ

श्रीजी- हैं! मेरे हाथ सौं वह बालक कहाँ गयौ? बाबा पूछैंगे, तब मैं उन कूँ कहा उत्तर दऊँगी?

लतान सौं निकसि कृष्ण बड़े रूप में श्रीजी कूँ दर्शन दैं

श्रीजी- तू-तू या समैं कौन, जो मेरी दृष्टि में आय रह्यौ है?

( शेष आगे के ब्लाग में )

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